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पत्र : एस॰ आर॰ हिगनेलको

[ अगस्त ७, १९१९][१]


प्रिय श्री हिगनेल,

टर्कीके प्रश्नसे सम्बन्धित अपने २७ जुलाईके पत्रके सिलसिले में मैं एक लेखकी प्रतिलिपि संलग्न कर रहा हूँ। श्री मार्माड्यूक पिकथॉल द्वारा लिखित स्तम्भित कर देनेवाला यह लेख १० जुलाईके 'न्यू एज' में प्रकाशित हुआ था । इसमें दी गई जान - कारी प्रामाणिक मालूम पड़ती है। यदि स्थिति वास्तवमें ऐसी है तो यह बड़े दुःखकी बात है । मुझे लगता है जनताको इसकी जानकारी न देना अनुचित होगा । मैं अपनी पूरी शक्तिके साथ वाइसराय महोदयसे आग्रह करता हूँ कि किसी तरह सम्भव हो तो वे इस बारे में तुरन्त एक सार्वजनिक घोषणा करके जनताकी दुश्चिन्ताओंको शान्त करें । मेरी विनम्र राय है कि यदि कमजोर राष्ट्रोंके साथ ऐसा ही बर्ताव किया जायेगा - जैसा कि लगता है टर्कीके साथ किया जानेवाला है- - तो शान्तिकी बात एक मखौल बनकर रह जायेगी। इस पूरे मामलेमें न्यायका जो प्रश्न निहित है, उसके अलावा उसमें यह प्रश्न भी निहित है कि क्या भारत सरकार इस बात के लिए तैयार है कि साम्राज्यके करोड़ों नागरिकोंके हृदयों में असन्तोष इसी प्रकार सुलगता रहे। मैं नहीं मान सकता कि खिलाफतके प्रश्नका कोई उचित हल निकालना वाइसरायकी शक्तिसे बाहर है।

मैं यह भी बता दूं कि मैंने अपने पिछले पत्रमें जिस नोटिसका उल्लेख किया था, उसकी शर्तोंके अनुसार मैंने श्री पिकथॉलके लेखको प्रकाशित करनेकी अनुमति लेने के लिए बम्बई सरकारको प्रार्थना-पत्र भेज दिया है।

हृदयसे आपका,

हस्तलिखित अंग्रेजी मसविदे (एस० एन० ६७९०) की फोटो- नकलसे।

 
  1. यह पत्र और पिछला शीर्षक एक ही दिन लिखे गये जान पड़ते हैं।