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उपद्रव जाँच समिति के सामने गवाही


यह काम आपने अहमदाबादसे लौटकर किया, और आपने सभाके मन्त्रियोंके नाम एक पत्र[१] लिखा, जिसमें आपने कहा कि "बड़े दुःखके साथ में सविनय अवज्ञा आन्दोलनको अस्थायी रूपसे स्थगित रखनेकी सलाह देनेको बाध्य हुआ हूँ। में यह सलाह इसलिए नहीं दे रहा हूँ कि उसकी सफलतामें अब मेरा विश्वास कुछ कम हो गया है; परन्तु इसलिए दे रहा हूँ कि उसमें मेरा विश्वास और अधिक दृढ़ हो गया है। सत्याग्रह-सिद्धान्तके मेरे बोधने ही मुझे ऐसा करनेको विवश किया है। मुझे खेद है कि जब मैंने सार्वजनिक आन्दोलन आरम्भ किया उस समय मैंने अमांगलिक शक्तियोंके प्रभावको कम कूता इसलिए अब मुझे रुककर यह विचार करना है कि परिस्थितिका सामना भली-भाँति कैसे किया जा सकता है।" वहाँ तो लगता है, आपने बहुत स्पष्ट लिखा है कि जब २३ फरवरीको आपने सार्वजनिक आन्दोलनके रूपमें सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा प्रारम्भ की उस समय आपने अशुभ शक्तियोंको बहुत कम करके आँका था, और मैं समझता हूँ, बीचके समयमें भारतको जिन अनुभवोंसे होकर गुजरना पड़ा उनके कारण आपको यह मानना पड़ा कि इस रूपमें तो यह लाभके बजाय हानि ही अधिक पहुँचा रहा है—है न?

जी हाँ।

और मेरा खयाल है, उस दिन यानी १८ अप्रैलके बाद आपसे समय-समयपर यह बतानेका अनुरोध किया जाता रहा है कि आन्दोलन फिर आरम्भ किया जायेगा या नहीं; क्या सचमुच इसे फिर आरम्भ कर दिया गया है?

नहीं।

तो उस तारीखसे आपने इसे स्थगित ही रखा है?

और तब एक नोटिस जारी किया गया कि यह—जहाँतक मुझे याद है। फिर १ जुलाई या १ अगस्तको प्रारम्भ किया जायेगा। आगे चलकर—याद नहीं किस महीने में मैंने—देखा कि अब स्थिति काफी नियन्त्रणमें है, लेकिन यह समझकर कि भारत सरकारको इसकी अधिक जानकारी होगी, मुझे लगा कि एक सच्चा सत्याग्रही होने का अपना दावा सिद्ध करनेके लिए मुझे झुक जाना चाहिए और मैं झुक गया। बात यह थी कि लॉर्ड चेम्सफोर्डकी यही इच्छा थी; उन्होंने बम्बईके गवर्नर महोदय के जरिये इसे मुझतक पहुँचाया था। बम्बईके गवर्नर महोदयने भी मुझे यही सलाह दी थी।

मेरा खयाल है आपके हस्ताक्षरोंसे युक्त एक पत्र[२] भी है, जिसमें आपने यह बात इस प्रकार कही है कि "जबतक हम सत्यका पालन करते हैं और दूसरोंको वैसा ही करने को कहते हैं, तबतक सत्याग्रह कभी बन्द हुआ नहीं कहलाएगा। यदि सभी सत्यका पालन करें और किसीके जान-माल का नुकसान करनेसे परहेज रखें, तो

  1. देखिए खण्ड १५, पृष्ठ २५१-५२।
  2. देखिए खण्ड १५, पृष्ठ २७४-७५।
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