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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

यह बात उसकी इच्छापर निर्भर कर सकती है कि अगर वह उसका पालन न करे तो उस सम्बन्धमें और भी कुछ न करे, लेकन सविनय अवज्ञा तो इससे कहीं आगे जाती है। जाती है न?

बेशक।

अव्वल तो एक प्रचार-साधनके रूपमें, जैसा कि आपने दक्षिण आफ्रिकाके बारेमें बोलते हुए कहा था, सविनय अवज्ञा सरकारको जनताको इच्छाके आगे झुकानेका एक उपाय है?

जी हाँ, निस्सन्देह।

दूसरे, अवज्ञाका स्वरूप सक्रिय भी हो सकता है और निष्क्रिय भी, लेकिन तब भी आपके सत्याग्रह के सिद्धान्तके अनुसार उसमें विनय होनी ही चाहिए?

जी हाँ।

और तीसरे, यह भी हो सकता है कि समिति उल्लंघनार्थं ऐसे कानून निर्धारित न कर पाये जो किसीकी अन्तरात्माके विरुद्ध हों या इस उद्देश्यसे ऐसे कानून निर्धारित कर दे जो किसीकी अन्तरात्माके विरुद्ध न हों?

अवश्य।

जैसा मैंने समझा, आपका कहना यह है कि इस भेदको आप अपने पहले प्रचारके अनुभवसे समझ पाये और यही अनाक्रामक प्रतिरोधके सिद्धान्तको कार्यरूप देनेका आपका ढंग है?

यही कारण है कि मैंने इसे निष्क्रिय सिद्धान्त नहीं कहा है, क्योंकि इसमें निष्क्रियता जैसी कोई चीज है ही नहीं। यह सक्रिय है, लेकिन शारीरिक अर्थों में नहीं।

उदाहरण के लिए, अगर कोई ऐसा कानून हो जिसमें कहा गया हो कि बिना पंजीयन करवाये आप कोई अखबार नहीं निकाल सकते और तब भी आप निकालते हैं, तो यह निष्क्रिय प्रतिरोध नहीं होगा—यही न?

जी हाँ, यह सक्रिय प्रतिरोध है और प्रबल रूपसे सक्रिय प्रतिरोध है।

इसी प्रकार आपसे यह कहा जाता है कि आप दिल्ली न जायें और तब भी वहाँ जाकर आप गिरफ्तार हो जाते हैं तो यह सक्रिय प्रतिरोध होगा?

अवश्य।

अब में आपसे जानना यह चाहता हूँ कि आप इस बातको समझते हैं या नहीं कि सविनय अवज्ञाकी आपकी कल्पनामें और जिसे सत्याग्रह कहा जाता है, उसमें अन्तर है? वैसे मुझे तो लगता है कि दोनोंमें अन्तर है?

मैं भी इस अन्तरको स्वीकार करता हूँ। दोनोंमें एक बुनियादी भेद है।

आपने कहा कि इस घरेलू नियमको राजनीतिक क्षेत्रमें लागू करना है, अर्थात् जो बात किसीकी अन्तरात्मा स्वीकार नहीं करती उसे अस्वीकार करनेका उसे हक है?

हाँ, यह सत्य है?