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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


यह हो सकता है, लेकिन फिर भी वहाँ आपके सामने एक साफ- सीधा सवाल मौजूद था?

और वही बात यहाँ भी है।

आप कहते हैं कि यहाँ इस अवसर विशेषपर तो आपके सामने रौलट विधेयकको बात थी, लेकिन जब एक बार सत्याग्रहके इस सिद्धान्तको आप भारत जैसे देश में राजनीतिक आन्दोलनों और गति-विधियोंके क्षेत्रमें लागू कर देते हैं तो उससे कोई एक साफ-सीधा सवाल हमारे सामने उपस्थित नहीं हो सकता। आपके सामने तो तब तरह-तरहकी और उलझी हुई स्थितियाँ होंगी जिनपर आपको यह सिद्धान्त लागू करना होगा?

मैं इस सिद्धान्तको जीवनको हर स्थिति में लागू नहीं करता। मैं तो सत्याग्रहको एक ऐसे साधनके रूपमें प्रस्तुत करता हूँ जो हिंसाकी तुलनामें असीम शक्तिशाली और कहीं अधिक पवित्र है।

तो मेरा खयाल है, आप इस बातसे सहमत होंगे कि यह कोई ऐसा सिद्धान्त नहीं है जिसका आप हर शिकायतको दूर कराने या सामने आनेवाली प्रत्येक स्थितिका सामना करनेके लिए उपयोग करेंगे?

बिलकुल नहीं। और कुछ नहीं तो सिर्फ इस सिद्धान्तकी सहज सीमाओंके कारण, और इस कारण कि हर आदमी कष्टसहनके लिए तैयार नहीं रहता। हर आदमी चाँटेके बदले चांटा मारनेको तैयार है।

आप कहते हैं कि साधारण आदमी तो हमेशा वार करनेको तैयार रहता है, इसलिए आपके सिद्धान्तमें वह पूर्णतः वर्जित है, और इसके विपरीत, कष्ट भोग रहे लोग कष्ट उठाते जाते हैं। अब इसके लिए क्या सामान्य मानवीय आवेगोंपर बहुत ही असामान्य नियन्त्रण रखनेकी जरूरत नहीं है?

जैसा मेरा अनुभव है, उसके अनुसार तो नहीं। दरअसल कष्ट उठानेके लिए आप जैसा सोचते हैं, वैसे असाधारण नियन्त्रणकी जरूरत नहीं होती। हर माँ कष्ट उठाती है, लेकिन वह किसी असाधारण गुणसे सम्पन्न नहीं होती।

अब साधारण जीवनका एक उदाहरण लें। अगर कोई आपपर वार करता है और आप अपने सिद्धान्तके अनुसार उसे बरदाश्त कर लेना तय करते हैं तो निश्चय ही उसके लिए सामान्य मानवीय आवेगोंपर असाधारण नियन्त्रणकी जरूरत तो होगी ही?

तब मैं कहूँगा कि आपके देशभाइयोंको इतने असाधारण आत्म-नियन्त्रणका वर- दान प्राप्त है।

क्या आप सोचते हैं, उन्होंने इन सभी स्थानोंमें ऐसे आत्म-नियन्त्रणसे काम लिया या ऐसे आत्म-नियन्त्रणका परिचय दिया?

जी हाँ, उन्होंने बहुत बड़ी हदतक इसका परिचय दिया है।

अच्छा तो अहमदाबादकी ही बात लें। क्या आप मानते हैं कि आपकी गिरफ्तारीका समाचार सुनकर उनका उबल पड़ना और ऐसा बर्बर आचरण करना जिसकी स्वयं