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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


और उसके प्रयोगका तरीका है कानूनको तोड़ना और उसमें तदर्थ विहित दण्डको आगे बढ़कर स्वीकार करना। और आपका कहना है कि आपका सिद्धान्त ऐसी सीख उन कानूनोंके सम्बन्धमें देता है जिनका पालन करना अपमानजनक है और आप यहाँतक कहते हैं कि किसी भी कानूनके प्रति आपके द्वारा बताया गया विरोध व्यक्त करनेके लिए सम्बन्धित व्यक्तिको सरकारके साथ सहयोग करना बिलकुल बन्द कर देनेका अधिकार है?

मैंने यह तो नहीं कहा है कि "वह सरकारके साथ सहयोग करना बन्द कर दे"। लेकिन में इस प्रस्थापनाको भी स्वीकार कर लूंगा, अगर स्थिति ऐसी हो गई हो जिसमें राज्यके साथ सहयोग करना पूर्ण रूपसे बन्द कर देना उचित हो।

लेकिन में मानता हूँ कि सामान्यतः आपका सिद्धान्त सरकारके साथ सहयोग करनेका ही है?

जी हाँ।

मेरा मतलब है, स्वयं देशके हितमें देशके सुव्यवस्थित विकासकी दृष्टिसे ही, क्योंकि इसके लिए सहयोग करना जरूरी है?

जी हाँ।

और यह भी कि यथासम्भव हर प्रकारका प्रजातिगत विद्वेष या प्रजातिगत भावना अथवा इस प्रकारकी कटुतापूर्ण दूसरी बातोंको दूर करना चाहिए?

जी हाँ।

इस दृष्टिसे देखनेपर तो जब आपका सिद्धान्त किसी विशेष कानून या कानूनोंको लेकर कष्ट उठाने और उन्हें तोड़कर जेल जानेको कहता है तब आप यही आशा करते हैं न कि उससे आखिरकार सत्ताधारी लोगोंके मनमें सहानुभूतिके भाव जागेंगे और वे इस चीजको सही रूपमें देख सकेंगे?

इस वाक्यमें से में 'आशा' शब्द निकाल देना चाहूँगा। यह 'आशा' इसका कोई आवश्यक तत्त्व नहीं है।

अगर मैं भूल नहीं रहा हूँ तो मेरा खयाल है, अपने बयानमें आपने इसका जिक्र किया है?

हाँ, जब मैं लोगोंके सम्मुख यह सिद्धान्त प्रस्तुत करता हूँ तो इस आशाका भी जिक करता हूँ, लेकिन यह इस सिद्धान्तका कोई आवश्यक हिस्सा नहीं है। आवश्यक हिस्सा तो यह है कि जिस कानूनका पालन करना अपमान-जनक हो उसे स्वीकार न किया जाये और उसका पालन न किया जाये, और इस प्रकार इस परिस्थितिमें ऐसा करना हमारे लिए आवश्यक हो जाता है, लेकिन यह अपने आपमें तो एक ईमानदारी भरी कार्रवाई द्वारा विरोध व्यक्त करना है, जिससे ऐसा करनेवाले व्यक्तिको दुनियाकी सहानुभूति प्राप्त होती है और वह कानून रद कर दिया जाता है। यह तो उस कार्रवाईकी एक शर्त-भर है। कोई व्यक्ति यह भी कह सकता है कि "नहीं, सारी दुनिया मेरे खिलाफ उठ खड़ी होगी", लेकिन उसे अपना विरोध तो तब भी प्रकट करना ही होगा।