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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


ठीक है, लोग चाहे प्रतिज्ञा लें या न लें, लेकिन आप चाहते थे कि वे मनसे सत्याग्रही बन जायें, सत्याग्रह आन्दोलनके सिद्धान्तोंका पालन करें?

जी हाँ, लेकिन मैं उनसे इस आन्दोलनके उसी हिस्से में शामिल होनेकी अपेक्षा रखता था जिसका सविनय अवज्ञासे सम्बन्ध नहीं था, मतलब यह कि मैं उन्हें पहलेसे बता देता था और जो सभाएँ आदि होने को होतीं उनमें शामिल होनेको तो आमन्त्रित करता था लेकिन कानूनके सविनय भंगमें शामिल होनेको नहीं, और न ही में उनसे कभी यही कहता था कि जो लोग इसमें शामिल नहीं होना चाहते उन्हें वे जबरदस्ती शामिल करें।

तो क्या आपका मंशा कभी भी यह नहीं था कि जनसाधारण इस आन्दोलनके सविनय अवज्ञावाले हिस्से में भाग ले?

हाँ, तबतक नहीं जबतक कि लोग निश्चित रूपसे सत्याग्रह की प्रतिज्ञा न ले लें। लेकिन प्रतिज्ञा ले लेनके बाद तो में जनसाधारणको भी शामिल करनेको तैयार था।

लेकिन आप यह चाहते थे कि ऐसे लोग सत्याग्रहके सिद्धान्तका अनुसरण करें?

बेशक! आपको शायद याद होगा, मैंने इन हिंसात्मक कार्रवाइयोंके बाद प्रतिज्ञाका एक दूसरा प्रारूप भी तैयार किया था जिसपर सभीको हस्ताक्षर करने थे। उसमें सविनय अवज्ञाका कोई जिक्र नहीं किया गया था, बल्कि सिर्फ इतना कहा गया था कि हर हालत में सत्यका पालन किया जाये और दूसरोंसे भी ऐसा ही करनेको कहा जाये। उसमें तो मैंने स्वेच्छया कष्ट सहनका भी कोई उल्लेख नहीं किया।

इसपर कौन लोग हस्ताक्षर करनेवाले थे?

इस प्रतिज्ञापर ऐसे बहुत सारे लोग हस्ताक्षर करनेवाले थे जो मेरे दायरेसे बाहर हैं और सविनय प्रतिरोधी भी नहीं हैं।

तो आपका खयाल यह है कि जनसाधारणसे या काफी बड़ी तादादमें लोगों से सविनय अवज्ञाका धर्म अपनानेको नहीं कहना चाहिए?

मैं यह तो नहीं कह रहा हूँ। मैं तो सिर्फ यह कह रहा हूँ कि हिंसात्मक आन्दोनके विरोध में मैंने दूसरी प्रतिज्ञा जारी की जिसके पीछे मंशा यह था कि जो कोई भी चाहे इसपर हस्ताक्षर कर दे। इससे हस्ताक्षरकर्त्तापर सिर्फ इतना बन्धन लगता था कि वह अपने सारे व्यवहारमें सत्यका पालन करे और किसीके प्रति हिंसा न करे। अर्थात् सविनय अवज्ञा और इस प्रकार स्वेच्छया कष्ट सहनकी बात इसमें से निकाल दी गई थी।

इसलिए न कि आपने सोचा, सविनय अवज्ञाके कारण अवज्ञा करनेवाले को जो कष्ट सहना पड़ता है उसके कारण वह जनसाधारण के लिए पूरी तरह उपयुक्त चीज नहीं है?

जी नहीं, सो बात नहीं है। दरअसल उस समय मैंने आन्दोलन स्थगित कर दिया था लेकिन साथ ही देशके सामने कोई प्रवृत्ति रखना चाहता था। स्वभावतः कोई नेता कभी अपने प्रचारके एक पक्षपर जोर देता है तो कभी दूसरे पक्षपर। इस बार जब मैंने देखा कि लोगोंने उसके सविनय अवज्ञा पक्षको गलत समझ लिया