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११. पत्र : अब्दुल अजीजको

बम्बई,

अगस्त ८, १९१९

प्रिय श्री अब्दुल अज़ीज़,

जब सर नारायण चन्दावरकरने[१] खुली चिट्ठी लिखी और जब सविनय अवज्ञा - जिसे गलत तौरपर 'पैसिव' (निष्क्रिय) कहा गया है - फिरसे शुरू करनेके प्रस्तावके बारेमें सरकारने मेरे सामने दलीलें रखीं, तब मैंने थोड़े समय के लिए उसे मुल्तवी करके नम्रतापूर्वक उसकी बात मान ली। इसलिए मेरे लिए और कोई उत्तर देना ज़रूरी नहीं था। परन्तु आपकी खुली चिट्ठी में[२] कुछ बुनियादी मुद्दे पेश किये गये हैं। सविनय अवज्ञा के विरुद्ध जो विभिन्न आपत्तियाँ उसमें उठाई गई हैं, उनका ब्यौरेवार उत्तर देनेकी आवश्यकता है।

आपने कृपापूर्वक पत्र लिखा इसलिए सर्वप्रथम मेरा हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें। आपको यह जानने में दिलचस्पी होगी कि दक्षिण आफ्रिकाकी आठ सालतक चलने - वाली लम्बी लड़ाई में आपके जिलेके कुछ दिलेर पठान भी मेरे साथ सत्याग्रहीके रूपमें काम करते थे। उनमें से एक नेटालकी एक खानमें काम करते थे। उनके जमादारने उनको बुरी तरह पीटा था। कारण इतना ही था कि वे मेरे साथ सविनय अवज्ञा आन्दोलन में शरीक हुए थे। अपकार करनेवालेका विरोध न करने, परन्तु उसकी इच्छाके आगे न झुकनेकी अपनी प्रतिज्ञासे वे बँधे हुए थे, इसलिए उन्होंने अवज्ञाका यह दण्ड चुपचाप सहन कर लिया। वे मेरे पास आये, उन्होंने मुझे अपनी पीठपर पड़े निशान दिखाते हुए कहा : मैंने अपनी प्रतिज्ञा और आपकी खातिर इसे सहन किया है। वरना मैं एक पठान हूँ और मुझपर जो हाथ उठाये उसे मैं यों ही नहीं छोड़ता। उनके इस कष्ट सहनसे और उन जैसे हजारों दूसरे लोगोंके कष्ट सहनके कारण ही वह तीन पौंडका घृणित व्यक्ति कर रद हुआ था, जो हमारे गरीब देशबन्धुओं, उनकी पत्नियों और उनके बालकों को गिरमिटसे छूटनेके बाद नेटालमें स्वतंत्र मनुष्यकी हैसियतसे रहने की कीमत के तौरपर हर साल देना पड़ता था।

जिस विचारने नेटालके मूक मजदूरोंको जुल्मसे छुड़ाया, अब उसीका प्रयोग छोड़ देने को आप मुझसे कहते हैं। जिस प्रयोगने इस्लामको दुनियाके महान् धर्मो में एक जीवन्त धर्म बनाया, उसे छोड़ देने को आप मुझसे कह रहे हैं। सन् १९१७ में[३] चम्पारनमें अधिकारियोंने मुझे जिला छोड़कर चले जानेका हुक्म दिया था। उसकी जब मैंने सविनय अवज्ञा की, तब कोई अनिष्ट परिणाम नहीं हुआ। मेरा यह दावा है

  1. नारायण गणेश चन्दावरकर (१८५५-१९२३); समाज-सुधारक तथा उच्च न्यायालयके न्यायाधीश।
  2. यह २७-७-१९१९ के पायनियर में प्रकाशित हुई थी। देखिए परिशिष्ट २
  3. देखिए खण्ड १३