पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/५००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कानूनको देशकी विधान-संहितामें दाखिल कर देना है। मेरा खयाल है, यहाँ कार्यपालिका, तथ्योंको देखते हुए जितना जरूरी था, उससे बहुत आगे निकल गई।

मुझे रौलट अधिनियम पढ़नेका सुयोग नहीं मिला है, लेकिन मेरा खयाल है। कि यह तो मात्र एक समर्थकारी कानून है, अर्थात् इसे पास करके भारत सरकार इसे व्यवहार में भी ले आई हो, यह जरूरी नहीं है। इसे व्यवहारमें तो तभी लाया जा सकता है जब सपरिषद् गवर्नर जनरल ऐसा करना जरूरी समझें?

हाँ, सिवा इस हिस्सेको छोड़कर।

गवर्नर जनरल यह प्रमाणित करते हैं कि इस कानूनको एक खास क्षेत्रमें लागू करना जरूरी है, लेकिन क्या आप यह नहीं मानते कि यह सुरक्षाकी पर्याप्त व्यवस्था है?

जी नहीं, बिलकुल नहीं, क्योंकि में जानता हूँ कि यह कानून किस तरह बनाया गया है। इसका उद्भव ही वास्तवमें इसे एक दूषित कानून बना देता है। इसके उद्भवका स्रोत है एक अदना सा पुलिस अधिकारी या पुलिस अधिकारी भी क्यों, वास्तवमें कोई अदना-सा पुलिसका सिपाही। वह अपने वरिष्ठ अधिकारीसे जाकर कहता है कि 'अरे, यहाँ तो अमुक-अमुक बातें हो रही हैं।' अब पुलिस अधिकारी बातोंकी गहरी छानबीन कर भी सकता है और नहीं भी कर सकता और अगर करेगा भी तो वह पुलिसके उसी आदमीकी आँखोंसे करेगा जिसने उसे यह जानकारी दी है। और इसके बाद, इसके मूलमें जो दोष रह जाता है, वह ऊपर वाइसरायके स्तर तक पहुँच जाता है। अब इस जाँचमें, जो इतनी दूषित है, जितनी भी औपचारिक पवित्रता लाई जाये, मैं कहता हूँ यह गलत है और इसलिए वाइसरायको आमतौरपर इन बातोंकी घोषणा करनेका अधिकार नहीं लेना चाहिए था। अगर वे अपने-आपको जिम्मेदार बनाना चाहते हों तो विधान परिषद् नहीं, बल्कि वे स्वयं यह कानून बनायें।

क्या आपके कहनेका मतलब यह है कि ऐसे महत्त्वपूर्ण मामलोंमें, महज इसलिए कि किसी चीजका प्रारम्भ पुलिसके किसी सिपाहीने कर दिया है, उसे उस सिपाहीसे लेकर ऊपर वाइसरायतक सभी अधिकारी स्वीकार कर लेंगे और अपने अनुभव और ज्ञानके आधारपर उस चीजकी खुद ही भलीभाँति परीक्षा करके यह पता नहीं लगायेंगे कि जिस बातकी ओर उनका ध्यान आकर्षित किया गया है वह सही है या गलत?

मैं यह नहीं कहता कि और कोई रास्ता हो ही नहीं सकता। हमारी सरकारका जैसा गठन है उसके अन्तर्गत तो बस यही करना सम्भव है, लेकिन इस चीजको जानते हुए मैं तो कार्यपालिकाको एक ऐसे अपराधके सिलसिले में, जो भारतीय जीवनमें कोई आम चीज नहीं बन गया है, इतने जबरदस्त अधिकार नहीं दूँगा। अगर अराजकता भारतके एक छोरसे लेकर दूसरे छोरतक इस देशके जीवनकी एक आम बात हो गई होती तो शायद में रोलट अधिनियमके विरुद्ध इतना अधिक नहीं कहता; उस हालत में में इस कानूनकी तफसीलोंकी जाँच करनेको सहमत हो जाता। लेकिन आज तो में उसके लिए सहमत नहीं हूँ, क्योंकि इसके पीछे जो सिद्धान्त काम कर रहा है,