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कांग्रेस

करें, प्रायश्चित्त न करें तो हम शुद्ध नहीं हो सकते, जनरल डायर द्वारा किये गये भयंकर अपराधोंको भला-बुरा नहीं कह सकते; और यदि हम अपनी भूलोंको स्वीकार न करें तो सर माइकेल ओंडायरको पदच्युत करने तथा लॉर्ड चेम्सफोर्डको वापस बुलानेकी माँग भी नहीं कर सकते।

ऐसा भी कहा जाता है कि आप लोग किस हदतक उत्तेजित हो गये थे, यह क्यों नहीं सोचते? इसका उत्तर यह है कि यदि हम इस बातपर सोच-विचार करें तो भी मकान जलाने, निरपराधियोंको मार डालने आदि कामोंकी निन्दा करनेके लिए बाध्य हैं। गुस्सेके चाहे जितने कारण क्यों न हों, पर जो व्यक्ति गुस्से में आकर नुकसान नहीं करता वही जीतता है। उसीने नियमका पालन किया, ऐसा माना जायेगा। जो समाज नियमोंका पालन करना नहीं जानता, उसे अन्यायके सामने खड़े होने का हक ही नहीं। सरकारने मुझे गिरफ्तार किया, इससे लोगोंको गुस्सा चढ़ा; परन्तु चौकियाँ जलानेसे हमें क्या मिला? विद्यार्थियोंके परीक्षाभवन फुँक देनेसे क्या फायदा हुआ? इससे नुकसान हुआ सो तो प्रत्यक्ष ही है। हमें जुर्माना भरना पड़ा, बहुत से लोग जेल गये और बहुतसे लोगोंको साँसत में रहकर जीना पड़ा। मेरा तो यह दृढ़ विचार है कि यदि हमने १० अप्रैलवाली भूल न की होती तो हम आज बहुत ऊँचे उठ गये होते और रौलट अधिनियम कभीका रद हो गया होता। लगभग एक हजार निरपराध व्यक्ति जलियाँवाले बागमें मारे गये। ये लोग मारे न जाते और अन्य निर्दोष व्यक्तियों को जो जेल आदि भोगनी पड़ी वह न भोगनी पड़ती। इस प्रकार चाहे जिस दृष्टिसे सोचें, हम एक ही निर्णयपर पहुँचेंगे वह यह कि हम अपने लोगों द्वारा की गई मार-काट, आगजनी आदिकी निन्दा करनेके लिए बाध्य थे। स्वराज्य मिलनेपर भी यदि हम इस प्रकारके कार्य करेंगे तो जंगली माने जायेंगे।

संकटपूर्ण स्थिति

तीसरा महत्त्वपूर्ण प्रस्ताव सुधार-सम्बन्धी नियमोंके बारेमें है। इस प्रस्तावपर इतना मतभेद हुआ जिससे कांग्रेसकी बैठक में मतदानकी संकटपूर्ण स्थिति पैदा हो गई। पूरी कहानी न कहकर अंतमें जो थोड़ा-सा मतभेद रह गया था उसीको समझ लेना पर्याप्त होगा। श्री दास द्वारा पेश किये गये प्रस्ताव में तीन धाराएँ थीं जिनमें से एकका तात्पर्य यह था कि हम आज भी पूर्ण स्वराज्य पानेके योग्य हैं। दूसरी धारा थी कि मॉण्टेग्यू-सुधार अपूर्ण, असन्तोषप्रद और निराशाजनक हैं एवं तीसरी धारा यह थी, ब्रिटिश सरकारको चाहिए कि वह जल्दी ही जैसे बने वैसे पूर्ण स्वराज्य दे। माननीय पण्डित मालवीयजी, मि॰ जिन्ना और मुझे ऐसा लगा कि केवल इतना भर कहकर बैठ रहनेसे जनता हमारे कामको समझ नहीं पायेगी। यदि हम सुधारोंका उपयोग करनेकी इच्छा कर रहे हैं तो फिर उन्हें निराशाजनक नहीं कहना चाहिए और यदि हम उनका उपयोग करना चाहते हैं तो हमें यह बात साफ-साफ कह देनी चाहिए। अतः यदि हम मानें कि श्री मॉण्टेग्युने हिन्दुस्तानके लिए जो सुधार सामने रखे हैं, और जिन्हें स्वीकार करानेके लिए उन्होंने बहुत कोशिश की है तो हमें उनका आभार मानना ही पड़ेगा। मैंने लक्ष्य किया कि सुधारोंका उपयोग करनेको हम सभी प्रस्तुत थे। अतः हमें "निराशाजनक"