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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मैं एकदम यह नहीं कह सकता कि यह बात केवल आर्यसमाजमें ही विद्यमान है; लेकिन इतना तो सच है कि आज जो हवा बह रही है उसमें आर्यसमाज बहता जा रहा है।

ऐसा धार्मिक प्रचार, जिससे लोगोंमें असहिष्णुताको भावना पैदा हो, सच्चा प्रचार नहीं है। और वह अधिक समयतक टिक नहीं सकता। ऐसी किसी भी प्रवृत्तिको, जिससे जनताको नुकसान पहुँचता हो, रोकना धर्म-कार्य है। असहिष्णुतासे किसीको फायदा हुआ हो, ऐसा मेरे देखने में नहीं आया। असहिष्णुताको भावनासे प्रेरित धर्म प्रचार तो मिशनरियोंका अनुकरण होने के कारण उसी ढर्रें में ढल जाता है, और इस तरह मात्र प्रचार करना ही धर्म-कार्य बन जाता है। धर्म प्रचारका ऐसा स्वरूप मुसलमानों और ईसाइयोंमें दिखाई देता है और आर्यसमाज द्वारा उसी पद्धतिको ग्रहण करनेके कारण उसमें भी वही असहिष्णुताका भाव पैदा हो गया है।

सर अल्फ्रेड लायल अपनी एक पुस्तकमें लिखते हैं कि सच्चा धर्म-प्रचार तो वही है जिसकी जनताको अनुभूतितक न हो। आर्यसमाजका वर्तमान स्वरूप अन्य सम्प्रदायोंके समान एक सम्प्रदायका ही हो गया है। पूछा जा सकता है कि जिससे जनताको पतातक न चले ऐसे ढंगसे चुपचाप धर्मका प्रचार कैसे किया जा सकता हैं? इसका उत्तर कुदरत देती है।

कुदरतकी लीला देखो, एक वृक्षके बारेमें विचार करो। क्या आप देख सकते हैं, वह किस तरह बढ़ता है, आपके अंगोंका विकास स्वयंमेव होता चला जाता है, इसके लिए आपको कोई चिन्ता नहीं करनी पड़ती। ठीक यही बात धर्मके विषयमें भी लागू होती है।

शुद्ध धर्म में असहिष्णुताको अवकाश नहीं; शुद्ध धर्मके गुण [साम्प्रदायिकता आदि] अन्य स्वरूपोंमें नहीं हैं। हिंसासे हिन्दू-धर्म जितना अलग-थलग रह सका है उतना कोई और धर्म नहीं रह पाया है। द्वेष-भावना भी इस धर्ममें नहीं है। हिन्दू धर्ममें भी तलवारें चली हैं और झगड़े हुए हैं; लेकिन दूसरे धर्मोंमें तो इसकी अति ही हो गई।

मुझे [आर्य] समाजमें जो दूसरा दोष दिखाई दिया, वह जीभपर काबू न रखनेसे सम्बन्धित है। आजकल तलवारकी अपेक्षा जीभका अधिक प्रयोग होता है। कटु वचनसे तलवारके घावकी अपेक्षा अधिक पीड़ा होती है। मैंने अनेक बार देखा है कि अपने प्रवचनोंमें आर्यसमाजी जीभपर काबू नहीं रखते। [यह सत्य है और यह] सबको समझ लेना चाहिए कि हम सत्यको अस्वीकार नहीं कर सकते।

ऋषि-मुनियोंके विचारों और स्वभावपर मनन करें तो आप समझ जायेंगे कि वे केवल शान्तिपूर्वक, धैर्यपूर्वक अथवा सात्विक भावसे उपदेश दिया करते थे। कभी-कभी यदि कटु सत्य कहना ही पड़ता था तो उसे यथासम्भव नरमीके साथ कहा जाता था। समाजियों को ईसाइयोंकी धर्म-प्रचार पद्धतिका परित्याग कर देना चाहिए। वह अनुकरणीय नहीं है।

मैंने यह सब जो कहा सो आलोचना करनेके भावसे नहीं वरन् मित्रभावसे कहा है और उसमें भी मैंने केवल अपना अभिप्राय ही व्यक्त किया है।

[गुजरातीसे]
गुजराती, २५-१-१९२०