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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जिसके प्रति असावधानी दिखानेसे मनुष्य जातिको अकथनीय कष्ट भोगने पड़े हैं। स्वदेशीके माने है अपने ही देशमें तैयार मालका उत्पादन और वितरण। अपने वर्तमान संकुचित अर्थमें इसका मतलब होगा किसान जनताके लिए काम जुटाकर प्रतिवर्ष साठ करोड़ रुपयोंकी बचत। इसका मतलब देशकी ७२ प्रतिशत जनसंख्याके लिए एक अत्यावश्यक अनुपूरक उद्योग जुटाना भी है। स्वदेशी एक रचनात्मक कार्यक्रम है; जब कि बहिष्कार जान-बूझकर आर्थिक हानि पहुँचाकर ब्रिटिश जनताको विवश करनेका एक अस्थायी काम चलाऊ साधन है। इसलिए अपनी अभीष्ट सिद्धिके लिए बहिष्कार तो एक अनुचित दबाव डालना हुआ। बहिष्कारका एक अप्रत्यक्ष परिणाम अपने देशके उत्पादनमें वृद्धि भी हो सकता है, लेकिन तभी जब इसका प्रचार बहुत दिनोंतक होता रहे। परन्तु इससे एक अन्य चिन्ताजनक बात अवश्य पैदा हो जाती है, इसलिए कि बहिष्कारका अर्थ सभी विदेशी वस्तुओंका बहिष्कार नहीं; केवल ब्रिटिश वस्तुओंका बहिष्कार है। इससे अधिक सम्भावना इसी बातकी है कि अन्य देशों जैसे अमेरिका तथा जापानकी वस्तुओंका प्रचार बढ़ जायेगा। जापानका व्यापार भारतीय बाजारमें जिस तरह अपना प्रभुत्व जमाता जा रहा है, उसे में सदा आशंकाकी दृष्टिसे देखता हूँ। बहिष्कार जबतक काफी सर्वव्यापक न हो, तबतक वह प्रभावकारी नहीं हो सकता, पर स्वदेशीका पालन तो यदि एक व्यक्ति करे तो भी उससे देशको लाभ होगा। केवल क्रोध, रोष और आवेश उत्पन्न करनेवाले साधनों के सहारे ही बहिष्कार सफल हो सकता है। इससे अनचाहे परिणाम भी उपस्थित हो सकते हैं और दोनों पक्षोंके बीच स्थायी रूपसे अलगाव पैदा हो सकता है। इसपर श्री बैप्टिस्टाका कहना है कि यदि मेरे सदृश कोई व्यक्ति इसकी देखरेख करनेवाला हो तो इससे किसी तरहका राग-द्वेष पैदा होनेकी सम्भावना नहीं हो सकती। पर मैं इस बातको दृढ़तासे कह सकता हूँ कि श्री बैप्टिस्टाकी यह कल्पना निर्मूल है। जिस मनुष्यपर घोरतम अत्याचार किये गये हैं, उसके क्रोध और द्वेषको भड़कानेके लिए जरा-सा बहाना ही काफी होता है। उससे ब्रिटिश वस्तुओंका बहिष्कार करनेको कहना, उसके हृदय में अन्यायीको सजा देनेका विचार जगाना है। और दण्डकी परिणति क्रोधमें होती ही है।

श्री जहूर अहमदने भी मेरी बातोंकी आलोचना करते हुए लिखा है कि सहयोगसे हाथ खींचने और बहिष्कारमें तत्त्वतः कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही हैं। भेद केवल इतना ही है कि इसका प्रयोग स्वतंत्रताके साथ नहीं हो सकता। इसलिए यह कहीं कम प्रभावशाली होता है‌। यदि में किसी पापीके साथ सहयोग करता हूँ तो में भी पापाचारमें शामिल होता हूँ। इसलिए जिस समय पापीके पापाचारकी मात्रा बढ़ जाती है उस समय उसके साथ सहयोग बन्द करना आवश्यक हो जाता है। और यदि एक आदमी भी उसके सहयोगसे हाथ खींच लेता है तो उतना असर उसके कामपर अवश्य पड़ता है। पर चूँकि बहिष्कार एक प्रकारका दण्ड है और चूँकि दण्ड कभी भी कर्तव्यको कोटिमें नहीं आ सकता, इसलिए जबतक बहिष्कार अपना प्रभाव नहीं दिखा पाता तबतक उसपर किया गया प्रयत्न निष्फल ही होता है। मुट्ठी भर आदमियों द्वारा बहिष्कारका वही फल होगा जो हाथीको सींकसे मारने का।