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बहिष्कार और स्वदेशी


मैं इस बातको स्वीकार करता हूँ कि मैं बहिष्कारका बुनियादी रूपसे विरोध करता हूँ और मेरा विरोध धार्मिक धारणापर आधारित है। लेकिन इसका मतलब यह हुआ कि मैं धर्म-परक नियमोंको राजनैतिक क्षेत्रपर भी लागू करना चाहता हूँ। मैं इस बातको माननेके लिए तैयार नहीं कि ब्रिटेनके लोग इसे नहीं समझ पायेंगे। दक्षिण आफ्रिकाके यूरोपीयोंको मैंने इस सिद्धान्तको बड़ी आसानीसे समझाया है और उन्होंने समझा है। और न इसे प्रभावशील बनानेके लिए किसी धर्म-परक विचारका पालन करना आवश्यक है। मेरा सिर्फ यह कहना है कि शुद्ध धार्मिकताके सहारे जो काम किया जाये उसे बड़ी आसानीसे समझा और किया जा सकता है। यदि आध्यात्मिकता व्यावहारिकतापूर्ण न हो तो उसका कोई मतलब ही नहीं। यदि हमारे हाथ गन्दे हों तो उनको धो लेनेकी बात समझने में कोई कठिनाई नहीं हो सकती, और ऐसा करना भी इतना ही सहज होता है, पर है यह वास्तवमें एक आध्यात्मिक काम ही। स्वस्थ शरीरमें स्वस्थ मस्तिष्कका सिद्धान्त वास्तवमें आत्माका सिद्धान्त है। और जिस प्रकार हम सफाईके विषय में एक धर्म-परक दृष्टि रखे बिना भी हाथोंकी सफाई करने की आवश्यकता समझ सकते हैं, उसी प्रकार हम बहिष्कारकी व्यावहारिक असफलता और कुछ निश्चित परिस्थितियोंमें असहयोगकी व्यावहारिक आवश्यकताको भी, इनका धर्म-परक आधार समझे बिना ही, समझ सकते हैं।

तब क्या बहिष्कार व्यावहारिक है? श्री बैप्टिस्टाने ब्रिटिश मालके बहिष्कारका अनुमोदन किया है। मेरा कथन यह है कि जिस बात में देशका स्थायी और अमिट कल्याण है यदि उसकी प्रेरणा भी व्यापारियोंको प्रेरित नहीं कर सकती कि वे स्वदेशीका पक्ष ग्रहण करें और इस तरह विदेशी वस्त्रोंका बहिष्कार करें, तो ब्रिटिश लोगोंसे न्याय पानेके लिए ब्रिटिश वस्तुओंके बहिष्कारके लिए व्यापारियोंसे अपील करके उनको प्रेरित करनकी आशा व्यर्थ सिद्ध होगी। जब कोई घटना हो चुकी हो तो उसपर बहिष्कार किसी तरहका प्रभाव उत्पन्न नहीं कर सकता। यदि उस घटनाके परिणामपर बहिष्कारका कोई असर डालना है तो बहिष्कार तात्कालिक होना चाहिए। मेरी धारणा है कि तात्कालिक कार्रवाईके लिए हम पूरी तरह संगठित नहीं हैं। तुरन्त जो संगठन हम खड़ा कर सकते हैं उसके लिए बहिष्कारका इतना बड़ा क्षेत्र सँभालना सम्भव नहीं होगा। इसके अतिरिक्त ब्रिटेनके उद्योगपति दूसरी तरकीबसे भी अपना माल भारत में भेज सकते हैं। जिस तरह कई वर्ष पहले जर्मनी इंग्लैंडके जरिये अपना माल यहाँ भेजता था, उसी प्रकार ब्रिटेन भी अमेरिका या जापानके जरिये भारतीय बाजारमें अपना माल भज सकता है।

स्वदेशीका प्रण इसलिए लेता हूँ कि यह एक विकासशील प्रक्रिया है, अर्थात् जितनी आगे बढ़ती जायेगी उतनी ही शक्तिशाली बनती जायेगी। इसका काम छोटेसे-छोटे संगठनके द्वारा भी हो सकता है। यह शासकों या ब्रिटिश जनताके न्याय या अन्याय से सर्वथा स्वतन्त्र है। अर्थात् इसपर उसका कोई असर नहीं पड़ सकता। यह स्वयं ही अपने में पुरस्कार है। "इसमें असफलता और शक्तिके अपव्ययकी सम्भावना नहीं। इस धर्मपर थोड़ा भी आचरण करनेसे मनुष्य एक भारी खतरेसे बच जाता