पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 16.pdf/५३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५०३
कांग्रेस में सुधार-प्रस्ताव

मामलेको मत विभाजनकी स्थितितक ले जाना शायद ही उचित होता। उन्हींके संशोधनके फलस्वरूप श्री पालका संशोधन सामने आया। श्री पालका संशोधन तो एक नीतिपूर्ण कदम था। यदि प्रतिनिधियोंके सामने मूल प्रस्ताव, अर्थात् बिना सहयोग तथा धन्यवादवाले प्रस्ताव एवं श्री गांधीके सधन्यवाद प्रस्तावमें से एकको चुननेका सवाल होता तब मत विभाजन करवाना कर्त्तव्य होता। परन्तु श्री पालका संशोधन प्रतिनिधियोंकी प्रतिक्रिया जानने के इरादेसे पेश किया गया और वह गरम दलकी इस इच्छाका भी द्योतक था कि जिस हदतक अपनी बात रखते हुए सम्भव हो उस हदतक वे विरोधी संशोधनको मान लेंगे। श्री पालका संशोधन स्वीकार नहीं किया जा सका, क्योंकि उसमें 'प्रयोग' जैसे अशोभनीय शब्दको रखा गया था, अतएव स्वभावतः बीचका रास्ता अख्तियार करते हुए एक तीसरा संशोधन लाना पड़ा। सन्तोष इसी बातका नहीं है कि समझौता हो गया, बल्कि इस बातका भी है कि सभी लोग खुले तौरपर मत विभाजनकी स्थिति बचाने के लिए उत्सुक थे। निश्चय ही, देशके लिए इसका यह अर्थ है कि अधिकारियोंसे कांग्रेस उस हदतक सहयोग करना चाहती है जहाँतक वैसा करना उत्तरदायी सरकारकी शीघ्र स्थापनामें सहायक हो सके, और वह श्री मॉण्टेग्युको सुधारोंके विषयमें किये गये उनके मूल्यवान परिश्रमके लिए धन्यवाद देना चाहती है। यदि मूल संशोधन की सौम्य भाषा स्वीकार कर ली जाती, यदि धन्यवाद अधिक हार्दिक रूपसे व्यक्त किया गया होता और लॉर्ड सिन्हाको भी दिया गया होता तो हम निश्चय ही इसे अधिक पसन्द करते। परन्तु सहयोग और धन्यवाद प्रकट करनेके सिद्धान्तको तीनों नेताओं द्वारा स्वीकार कर लिये जाने के बाद सभामें मत विभाजन कराना गलत बात होती। हम यह बात स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं कि लोकमान्य तिलकने संशोधन इसीलिए स्वीकार कर लिया क्योंकि वे सर्वश्री मालवीय और गांधीको अपने उपकरणोंकी तरह इस्तेमाल करना चाहते थे और यदि वे उनके हाथमें खिलौना बनना स्वीकार करते तो इसका दोष लोकमान्य तिलकपर न होता, बल्कि जाहिर है कि सर्वश्री मालवीय और गांधी अपनी सिधाईके लिए दोषी होते। क्योंकि जैसे-जैसे दलका संगठन बढ़ता जायेगा हम समझते हैं कि दलके नेताओंके लिए अन्य लोगोंका अपने उपकरणके रूपमें प्रयुक्त करना ही उचित बात समझी जायेगी, बशर्ते कि ऐसे लोग मौजूद हों। इस भयसे कि कहीं हम किसीके हाथका खिलौना न बन जायें, सही मार्ग चुननेमें हिचकने से ज्यादा सावधानी अपनी राजनीतिको शुद्ध बनाने में बरतनी होगी। लोकमान्य तिलक एक निश्चित विचारधाराका प्रतिनिधित्व करते हैं, और उसे छिपाते नहीं। वे मानते हैं कि राजनीति में सब कुछ उचित है। राजनीतिक जीवनकी इसी धारणाको लेकर हमने उनसे मोर्चा लिया है। हमारा विचार है कि यदि हमने पाश्चात्य कूटनीति और तरीकोंको अपनाया तो हमारे देशका राजनीतिक जीवन भ्रष्ट हो जायेगा। हमारा विश्वास है कि सचाई, साफ व्यवहार और उदारतापर दृढ़तासे जमे रहकर ही हम देशके सच्चे हितको आगे बढ़ा सकते हैं, अन्यथा नहीं। परन्तु जिस बुनियादी मतभेदका उल्लेख हमने ऊपर किया है उसके कारण हम यह माननेसे इनकार करते हैं कि संशोधनको स्वीकार करने में लोकमान्य तिलकका मंशा अपने विरोधियोंके विचारोंको यथासम्भव मान्य करने के अलावा कुछ और भी था। कुल मिलाकर हमारी रायमें