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२६६. लोकमान्य तिलकके पत्रपर टिप्पणी[१]

[दिल्ली
जनवरी १८, १९२० के बाद]

लोकमान्य के साथ धर्म-ग्रन्थोंकी व्याख्याके विषयमें विवाद करनेमें स्वभावतः ही मुझे बड़ा अटपटा लगता है। परन्तु कुछ मामले ऐसे होते हैं, जिनमें या जिनके बारेमें अन्तःकरणकी आवाज किसी भी व्याख्यासे बढ़कर होती है। लोकमान्यके बताये हुए दोनों सूत्रोंमें मुझे तो कोई विरोध नहीं दीखता। बौद्ध सूत्र एक सनातन सिद्धान्त पेश करता है। 'भगवद्गीता' का सूत्र मुझे बताता है कि घृणाको प्रेमसे और असत्यको सत्य से जीतनेका सिद्धान्त किस तरह अमलमें लाया जा सकता है और लाया जाना चाहिए। यदि यह सच हो कि दूसरोंके साथ हम जैसा बर्ताव करते हैं प्रभु वैसा ही हमारे साथ करते हैं, तो फिर सख्त सजासे बचनेके लिए हमें क्रोधका बदला क्रोधसे नहीं, परन्तु क्रोधके बदले नम्रताका ही व्यवहार करना चाहिए। यह नियम वैरागियोंके लिए नहीं, बल्कि खास तौरपर संसारियोंके लिए ही है। लोकमान्यके प्रति मेरे मनमें आदर है, फिर भी मैं कहता हूँ कि यह सोचना मानसिक निष्क्रियताका द्योतक है कि संसार साधुओंके लिए नहीं है। पुरुषार्थ सब धर्मोका सार है; और पुरुषार्थ साधु—या कहिये हर मायने में सज्जन—बननेके उत्कट प्रयासके सिवा और कुछ भी नहीं है।

अन्तमें, जब मैंने लोकमान्यके मतानुसार 'राजनीति में सब कुछ चलता है' वाक्य लिखा, तब उनका अनेक बार कहा हुआ 'शठं प्रति शाठ्यम्' वाक्य मेरे दिमाग में घूम रहा था। मेरे खयालसे तो वह एक बुरी नीति पेश करता है। में यह आशा नहीं छोड़ सकता कि कुशाग्र बुद्धि लोकमान्य खुद ही इस सूत्रका खण्डन करनेके लिए एकाध दार्शनिक ग्रन्थ लिखकर किसी दिन भारतको चकित करेंगे। जो भी हो 'शठं


  1. यह टिप्पणी लोकमान्य तिलकके १८ जनवरी, १९२० को पूनासे लिखे एक पत्रके उत्तर में लिखी गई थी। पत्र इस प्रकार था : "पिछले अंकमें सुधार प्रस्ताव (रिफॉर्मस् रेजोल्युशन) सम्बन्धी आपका लेख देखकर मुझे दुःख हुआ। आपने उसमें मेरे विचार इस प्रकार प्रस्तुत किये हैं जैसे मैं मानता हूँ कि 'राजनीतिमें सब कुछ चलता है'। मैं आपको प्रस्तुत पत्र यह बतलानेके लिए लिख रहा हूँ कि उक्त लेख मेरे विचारोंका सही प्रतिनिधित्व नहीं करता। राजनीति सांसारिक प्राणियोंका क्षेत्र है, साधुओंका नहीं; और मैं बुद्ध उपदेश 'अक्कोधेन जिने कोधं' के बदले श्रीकृष्णके उपदेश 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाग्याहम्'—पर अमल करना ज्यादा पसन्द करता हूँ। इससे दोनोंका अन्तर स्पष्ट हो जाता है। और साथ ही 'जैसेसे-तैसा सहयोग' की मेरी उक्तिका भी। दोनों ही तरीके समानरूपसे ईमानदारीके और औचित्यपूर्ण हैं। दोनोंके बीच मौजूद अन्तरकी अधिक व्याख्या मेरी पुस्तक गीता रहस्यमें मिल जायेगी।" उल्लिखित लेखके लिए देखिए "कांग्रेस में सुधार प्रस्ताव", १४-१-१९२०।