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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सालोंके सिवा अबतक अंग्रेजीमें किये जानेके कारण राष्ट्रको सचमुच काफी हानि पहुँची है। में यह तथ्य भी बताना चाहता हूँ कि मद्रास प्रेसीडेन्सीके अतिरिक्त अन्य सभी प्रान्तोंके राष्ट्रीय कांग्रेसके दर्शकों और प्रतिनिधियोंमें से अधिकांश अंग्रेजीकी अपेक्षा हिन्दुस्तानी ही अधिक समझ सके हैं। इसलिए इसका एक बड़ा ही विचित्र-सा परिणाम यह हुआ है कि इन समस्त वर्षोंमें कांग्रेस जैसी महती संस्था केवल देखनेमें ही राष्ट्रीय रही है, किन्तु वह अपने वास्तविक शैक्षणिक महत्त्वके कारण कभी राष्ट्रीय नहीं रही। संसारके किसी भी अन्य देशमें यदि ऐसी कोई सभा होती जो साल-दर-साल लोकप्रिय बनती गई होती तो वह चौंतीस वर्षके अपने जीवनमें इतना राजनीतिक शिक्षण दे चुकी होती जो घर-घरमें प्रवेश कर जाता क्योंकि उसने विविध प्रश्नोंपर लोगोंके सामने उनकी अपनी भाषामें बारीकी से विचार किया होता। इसलिए कांग्रेसके पिछले सभी अधिवेशनोंकी खामियाँ जो भी हों, उनका रूप निश्चय ही पहलेके सभी अधिवेशनोंसे ज्यादा राष्ट्रीय रहा है, क्योंकि उसके अधिकांश प्रतिनिधि और दर्शक उसकी कार्रवाईको समझ सके हैं। श्रोतागण श्रीमती बेसेंटके भाषणसे ऊब गये थे। इसका कारण यह नहीं था कि वे उनके प्रति उदासीन या अशिष्ट थे, बल्कि वे उनके भाषणको समझ नहीं पाये थे, यद्यपि वह रोचक और योग्यतापूर्ण था। ज्यों-ज्यों राष्ट्रीय चेतना बढ़ेगी और लोगोंकी राजनीतिक ज्ञान और शिक्षणकी भूख तेज होगी, जो अवश्यम्भावी है, त्यों-त्यों वक्ताओंके लिए, चाहे वे कितने ही योग्य और लोकप्रिय हों, यदि वे अंग्रेजीमें भाषण देंगे तो सामान्य लोगोंकी सभाओंमें श्रोताओंका ध्यान आकर्षित किये रहना अधिकाधिक कठिन होता जायेगा और यह ठीक भी है। इसलिए में मद्रास प्रेसीडेंसीके लोगोंसे अपील करता हूँ कि वे समान सेवियोंके लिए हिन्दुस्तानी सीखनेकी राष्ट्रीय आवश्यकता समझें। मद्राससे बाहरके श्रोता बिना किसी कठिनाईके न्यूनाधिक हिन्दुस्तानी समझ सकते हैं। दयानन्द सरस्वती उत्तर भारतसे बाहर अपनी हिन्दुस्तानीकी वक्तृत्व कलासे श्रोताओंको मुग्ध कर देते थे। उनके भाषणोंको मामूली लोग भी बिना किसी कठिनाईके समझ सकते थे। इसका अर्थ यह है कि पैंतीस करोड़में से केवल तीन करोड़ अस्सी लाखसे कुछ ही अधिक लोग, जो मद्रास प्रेसीडेंसी में रहते हैं, हिन्दुस्तानीमें बोलनेवाले वक्ताकी बात नहीं समझ सकते। मैंने मुस्लिम आबादीको इसमें से निकाल दिया है, क्योंकि सभी जानते हैं कि मद्रास प्रेसीडेंसीके मुसलमान हिन्दुस्तानी समझते हैं। इसलिए प्रश्न यह है : इस प्रेसीडेंसीके तीन करोड़ अस्सी लाख लोगोंका क्या कर्तव्य है? क्या भारत उनके कारण अंग्रेजी सीखे? या वे सत्ताईस करोड़ सत्तर लाख भारतीयोंके लिए हिन्दुस्तानी सीखें? स्वर्गीय न्यायमूर्ति कृष्णस्वामी, जिनकी सहज दृष्टि अचूक थी, यह मानते थे कि भारतके विभिन्न भागोंके बीच विचारोंके आदान-प्रदानका एक मात्र सम्भावित माध्यम हिन्दुस्तानी ही हो नहीं जानता कि इस समय किसी भी व्यक्तिने इस स्थापनापर गम्भीरतासे कोई आपत्ति उठाई है। हजारों लाखों लोग अंग्रेजीको अपनी सामान्य भाषा नहीं बना सकते; और यदि यह सम्भव भी हो तो यह अत्यन्त अवांछनीय है। इसका सीधा-सादा कारण यह है कि उच्च ज्ञान और तकनीकी ज्ञान अंग्रेजीके माध्यम से प्राप्त किया जानेसे जन-