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भाषण : गुजराती बन्धु-समाजकी सभामें

भाई करीमभाई के साथ बातचीत करते समय उन्होंने मुझे बताया था कि मिलोंको जरूरतका कपड़ा तैयार करनेमें अभी पचास वर्ष लगेंगे। तो क्या हम पचास वर्ष राह देखते हुए बैठे रहेंगे? उद्योग आयोगकी रिपोर्टमें बताया गया है कि भारतमें हाथ-बुनाईसे एक तिहाई कपड़ा तैयार हो सकता है और यदि उसका विकास हो तो हमें अधिक सुविधा हो जाये। मिलोंके लिए तो यन्त्र चाहिए, यन्त्रके लिए हम दूसरोंपर निर्भर करते हैं; विदेशों में उतने यन्त्र नहीं हैं। मिल मालिकोंका कहना है कि एक यन्त्र लाने में एक वर्ष लगता है तथा उसको लगाने में बहुत दिक्कतका सामना करना पड़ता है। इन सब कठिनाइयोंको देखते हुए हाथसे बुननेका काम अत्यन्त आसान है, क्योंकि उसमें इतने प्रयत्न नहीं करने पड़ते। यह काम सामान्य व्यक्ति छः महीने में सीख सकता है। और यदि उसमें सामान्य बुद्धि भी हो तो वह तीन महीने में ही इस काम के लिए तैयार हो जाता है। सूत कातना तो बहुत ही आसान है। मैंने यह काम पन्द्रह दिनोंमें ही सीख लिया था।

डेढ़ सौ वर्ष पहले हम [अपने वस्त्र] अपने हाथोंसे ही तैयार किया करते थे। भारतकी प्रत्येक माता यह काम प्रभु-प्रीत्यर्थ किया करती थी। भारतकी नारियोंमें सूत कातनेकी यह प्राचीन इच्छा अभीतक देखनेमें आती है। अभी हाल ही में जब में बीजापुर और कलोलकी ओर गया था उस समय में लगभग बीस हजार स्त्री-पुरुषोंसे मिला। उनके साथ बातचीत के दौरान स्त्रियोंने मुझे बताया कि यह प्रयोग बहुत अच्छा और सरल है और यदि आप हमें चरखा प्रदान करें तो हम भी यह काम करेंगी। इस समय बीजापुर में डेढ़ सौ स्त्रियां हररोज आध मन रुई कातती हैं और अगर ज्यादा रुई दी जाये तो चार सौ स्त्रियाँ काम करनेको तैयार हैं। कलोलकी स्त्रियोंका भी यही कहना है। मद्राससे मेरे प्रिय मित्र श्री चेट्टियार मुझसे मिलने आये थे। और जब मुझे यह खबर मिली कि श्रीमती चेट्टियार भी साथ आई हैं तब मैंने श्री चेट्टियारसे कहा कि मैं उन्हें यहाँ आठ दिन रोकूंगा; कारण, यदि वे कातनेका काम सीखकर जायें तो अच्छा हो। इसे उन्होंने तुरन्त स्वीकार कर लिया और वे काम सीखकर ही गईं। उन्होंने मेरी इस इच्छाको मेरे प्रति प्रेमके कारण नहीं बल्कि इस कामके प्रति प्रेमभाव होने के कारण ही स्वीकार किया था। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सूत कातनेका काम हमें विरासत में मिला है। जिन्होंने डारविनको पढ़ा है वे विरासतके सिद्धान्त से परिचित हैं। यदि हम अपने इस धन्धेको फिरसे नहीं अपनायेंगे तो हम अपनी विरासत खो बैठेंगे। मैं आपसे कहता हूँ कि आप इसके प्रति अश्रद्धा न रखें। हम प्रयत्न करेंगे तो अनुकूल वातावरण तैयार हो जायेगा और हम अपनी इस परित्यक्त विरासतको वापस ला सकेंगे।

आचार्य परांजपेने[१] कहा था कि हम सारी दुनियासे होड़में नहीं टिक सकते; लेकिन इसमें होड़का प्रश्न नहीं है। यह तो किसानों और गरीबोंकी आर्थिक मुक्तिका प्रश्न है। किसान जगत्‌का पिता है। अमेरिका अथवा जापानका उदाहरण लीजिए। [वहाँ] किसानों की मदद की जाती है। हमारे गवर्नर महोदय भी यह बात जानने के लिए

  1. रैंगलर रघुनाथ पुरुषोतम परांजपे, फर्ग्युसन कॉलेज, पूनाके प्रिंसिपल।