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२७१. पत्र : मगनलाल गांधीको

[लाहौर
जनवरी २३, १९२० के बाद]

चि॰ मगनलाल,

मेरे मनमें हमेशा यह खयाल बना रहता है कि तुम्हें तो बीमार नहीं ही पड़ना चाहिए। फिर भी अगर पड़ोगे तो सहन कर लूँगा। बीमार न पड़नेकी चिन्तासे भी मनुष्य बीमार पड़ जाया करता है। जब स्वास्थ्य एक सीमातक बिगड़ जाता है तब वह पहले जैसा नहीं बन पाता। तुम चार-छः महीने अकेले ही किसी स्थानपर रह सको, यह तो मैं चाहता ही हूँ। इस प्रकार आश्रमसे दूर रहने का अवकाश जबरदस्ती निकाल सको तो में उसे उचित मानूँगा। आश्रमको तुम्हें इस दर्जेंतक पहुँचा ही देना चाहिए जिससे समय-समयपर तुम उसके भारसे मुक्त रह सको। लेकिन इस सबको एक ऊपरी व्यक्तिकी सलाह मात्र समझना।[१] करना तो अपने मनकी ही। मैं चाहता हूँ कि तुम शरीर, मन और हृदयसे स्वस्थ रहो।

एस्थर और दीपककी पूरी देख-भाल रखना। महादेवसे तो मिले ही होगे। बा, और तुम जैसे लोगोंको तो में लिख सकता हूँ। में तुम्हारी एक ऐसे व्यक्तिके रूपमें कल्पना करता हूँ जो दूसरोंकी फिक्र करने में अपनी खुदकी बीमारीको भूल जा सकता है। मथुरादास और देवदास खूब सेवा कर रहे हैं। देवदास बहुत आगे बढ़ गया है। सरलादेवी हर तरहसे मेरे ऊपर प्रेम बरसा रही हैं। समय मिलनेपर उन्हें पत्र लिखना कि दीपकके बारेमें चिन्ता न करें।

बापूके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ५७८१) से।
सौजन्य : राधाबेन चौधरी
  1. मूल गुजराती पत्रमें यह कहावत है "सेठकी सलाह द्वारतक" जिसका भाव है कि मालिककी हाँ में हाँ मिला दो फिर करो अपने मन की।