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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


फस्ट्रममें वहाँ १९१२ के अध्यादेश ९ के अन्तर्गत दिये गये फैसलेमें मजिस्ट्रेटने परिषद् के इस विचारका समर्थन किया है कि एशियाइयोंकी उपस्थिति खीझ उत्पन्न करनेवाली है और यूरोपीय व्यवसायके मार्गमें बाधा डालती है, और इसी आधारपर उन्होंने भारतीयोंको अवांछित माना है। दोनों निर्णयोंका परिणाम भारतीय समाजको बर्बादी है। अपीलें दर्ज करा दी गई हैं। स्थानीय सरकार द्वारा नियुक्त आयोग के समक्ष बयान देनेवाले यूरोपीय लोग भारतीय प्रश्नका विशेष अध्ययन कर रहे हैं और नगर निगमोंके लिए पूर्ण स्वायत्त शासनकी हिमायत कर रहे हैं। उपयुक्त अधिकारियोंसे अविलम्ब निवेदन कीजिए। संघ अनुरोध करता है कि सारे भारत में सभाएँ की जायें। नया कानून संख्या ३७ पुरानी कम्पनियों और व्यापारियों तकको संरक्षण प्रदान नहीं करता। स्थिति बड़ी संकटपूर्ण है। समाजकी रक्षाके निमित्त मुस्तैदीसे काम करना आवश्यक है।

जिन लोगोंने दक्षिण आफ्रिकी प्रश्नका तनिक भी अध्ययन किया होगा, वे इस तारको पढ़कर विचलित हुए बिना नहीं रह सकते। क्योंकि जैसा श्री अस्वात कहते हैं, नये कानूनसे जो थोड़ा-बहुत मिलने की बात कही जाती है, यह सब उसपर भी पानी फेर देता है। दादू लिमिटेड क्रूगर्सडॉर्पकी बहुत पुरानी भारतीय पेढ़ी है। उस नगरमें इसकी बहुत ज्यादा जमीन है, और तारका अर्थ यह है कि कम्पनीके नाम जमीनोंके जो हस्तान्तरण दर्ज हैं वे अवैध हैं, क्योंकि ऐसा जान पड़ता है कि अदालतका विचार यह है कि ये हस्तान्तरण कानूनके साथ धोखेबाजी है और विधानका उपहास नहीं किया जा सकता। इस निर्णयके औचित्य तथा जिन दलीलोंपर यह आधारित है, उनके सम्बन्ध में मैं कुछ नहीं कहना चाहता।

ऐसी कम्पनियोंके नाम लाखों रुपयोंकी जमीन पंजीकृत है जिनमें भारतीयोंका प्रमुख स्थान है। यदि यह निर्णय कायम रहता है तो इसमें से प्रत्येक कम्पनीके हाथोंसे वे जमीनें छिन जायेंगी जिनपर इनका वर्षोंसे दखल रहा है और जिन्हें इन्होंने कानूनी सलाह लेकर खुले तौरपर खरीदा था, और जिनका भूमि-पंजीयन कार्यालय में पंजीयन भी हो चुका है। पंजीयकों को इन सारी परिस्थितियोंकी पूरी जानकारी है, और अभी पिछले वर्ष ही, जब इस निर्योग्यता लगानेवाले नये कानूनको दक्षिण आफ्रिकी संघकी विधान परिषद् ने पास किया था, हमसे कहा गया था कि इस तरह जिन जमीनोंपर ३१ जुलाईसे पहले स्वामित्व प्राप्त किया जा चुका है, उनपर इस कानूनका कोई असर नहीं होगा, और इस विधानका औचित्य ठहराते हुए हमें संघ विधान सभाके सभी वक्ताओंने बताया था कि यह कानून अभी मौजूदा कम्पनियों और रेहननामोंको संरक्षण प्रदान करेगा। इसलिए यह निर्णय हमारी आँखें खोलनेवाला सिद्ध हुआ है। और मैं कहूँगा कि अगर मान भी लिया जाये कि निर्णय ठीक है, तब भी उसके कारण स्पष्टतः विधान सभाका अभिप्राय विफल हो जाता है और भारतीय उन अधिकारोंसे वंचित हो जाते हैं जिनका उपयोग वे वर्षोंसे सर्वथा निर्विघ्न रूपसे करते आये हैं। मैं तो यह मानता हूँ कि इस आसन्न संकटको जैसे भी हो टाला जाये—भले ही इसके लिए,