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२७८. पटरी से उतरे

मुझे हमेशा प्रिय-अप्रिय पत्र प्राप्त होते रहते है। मैंने जबसे सम्पादन-कार्य सँभाला तबसे और भी ज्यादा पत्र आने लगे हैं। उनमें से अधिकांश में प्रकाशित नहीं कर सकता, वे प्रकाशनके योग्य नहीं होते। लेकिन किसी-किसी पत्रको प्रकाशित करनेसे लाभ होने की सम्भावना होती है। ऐसा एक पत्र मुझे अभी-अभी प्राप्त हुआ है, मैं उसे नीचे मूल रूपमें ही प्रकाशित कर रहा हूँ।[१]

यह पत्र लिखनेवाला एक परिश्रमी युवक है। उसमें देशभक्तिकी आग है, लेकिन जैसे वक्र आँखके कारण सब कुछ वक्र दिखाई देता है उसी तरह अपने हृदयकी कटुताके कारण इन भाईको मेरी सब बातें उलटी ही दिखाई देती हैं। मेरे प्रति तो एक समय उनके मनमें प्रेम-भाव ही था। लेकिन अंग्रेजोंके प्रति उनकी कटु-भावनाने तथा अंग्रेजों के प्रति मेरी निस्पृह भावनाके कारण, ये भाई जो मेरे कार्योंको अच्छा मानते थे अथवा जिनके सम्बन्धमें तटस्थ रहते थे वे कार्य भी उन्हें [अब] बुरे जान पड़ते हैं। इतना ही नहीं वरन् मैंने अपने जिन कार्योंको सबसे श्रेष्ठ माना है मेरे उन कार्यों में भी वे मेरी मूर्खताको सिद्ध करने में समर्थ हो सके हैं।

यह कोई अपवाद नहीं है। ऐसा अनुभव मुझे दक्षिण आफ्रिकामें हुआ था और यहाँ भी यदा-कदा होता ही रहता है। मनुष्यकी ऐसी दशा कैसे हो जाती है? इसका उत्तर 'भगवद्गीता' में इन सुन्दर शब्दोंमें दिया गया है "विषयोंका ध्यान करनेसे मनुष्यके मनमें उनके प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है, आसक्तिसे काम, कामसे क्रोध, क्रोधसे मोह, मोहसे स्मृतिभ्रम, स्मृतिभ्रमसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे विनाश होता है।"[२] यह उत्तरोत्तर गतिका चित्रण है। विषय-ध्यानके कारण सब कोई इस अन्तिम गतिको प्राप्त नहीं होते, क्योंकि सभी अपना विवेक पूर्णतया नहीं खो बैठते।

प्रस्तुत प्रसंग में विषय है "नौकरशाही" के प्रति उपर्युक्त पत्र लेखककी अरुचि। उससे उनके मनमें क्रोध उत्पन्न हुआ, उस क्रोधावेशमें वे सारासारकी विवेक-बुद्धि खो बैठे हैं और पहले कहे गये वचनोंका भी उन्हें कोई ध्यान नहीं रहा।

ऐसी दशासे हम सब मुक्त रह सकें तो रहना चाहिए—यही चेतावनी देनेके लिए मैंने उपर्युक्त पत्रको प्रकाशित किया है।

"नौकरशाही" अथवा अन्य किसी प्रकारकी "शाही" के सब कार्य हमें पसन्द आयें यह जरूरी नहीं है। मुझे उसके बहुत सारे कार्य नापसन्द हैं लेकिन इससे मेरे मनमें उसके प्रति असन्तोषका भाव उत्पन्न नहीं होता और इसी कारण जिस बारीकीसे

  1. इसे यहाँ उद्धृत नहीं किया गया है। पत्र-लेखकने दलील दी थी कि गांधीजीने भारतमें जो भी कार्य आरम्भ किये थे, उन्हें पूरा करनेमें वे पूर्णतः असफल रहे हैं इसलिए "अब वे राजनैतिक कार्य करनेके सर्वथा अयोग्य है।"
  2. भगवद्गीता, अध्याय २, ६२-६३।