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रौलट कानून

किस्मके तर्कों और तथ्योंकी तोड़-मरोड़का सहारा लेना पड़ा है। कार्यकारिणी परिषद्के अधिकारियोंको जो अधिकार दिये हैं, वे इस समय तो अनावश्यक हैं इसका एक सीधा-सा कारण यह है कि भारत-रक्षा कानून अभी अमलमें है और अगले कुछ मास- तक अमल में रहेगा भी। उन्हें सचमुच ऐसे अधिकार देने जरूरी ही हों, तो वे किसी दूसरे कम अपमानजनक तथा अधिक संयत ढंगसे दिये जा सकते हैं। श्री मॉण्टेग्यु और लॉर्ड चेम्सफोर्ड राजनैतिक सुधारोंकी इस योजनाके संयुक्त प्रणेता हैं। यदि इन सुधारोंसे कुछ भी भला करनेका इरादा हो, तो जिस कानूनसे वह व्यर्थ हो जाता है, उस कानूनका समर्थन करना श्री मॉण्टेग्युको शोभा नहीं देता।

किन्तु यह लेख लिखनेका उद्देश्य यह तर्क करना नहीं है कि श्री मॉण्टेग्युकी बात टिक नहीं सकती। मुझे तो यह दिखाना है कि रौलट कानून बनाये रखनेका ही आग्रह हो तो सरकारको बहुत जबरदस्त सविनय अवज्ञा आन्दोलनके लिए तैयार रहना चाहिए, जो पूर्ण रूपसे सम्मानकी भावना रखते हुए तो किया जायेगा, परन्तु होगा उतना ही अटल। सवाल बिलकुल सीधा-सा है : जनताकी इच्छा सर्वोपरि रहे या सरकारकी? मैं यह कहनेका साहस करता हूँ कि कोई भी सरकार, वह कितनी ही बलवान और स्वेच्छाचारी क्यों न हो, सर्वसम्मत लोकमतके आगे झुकनेके लिए बाध्य है। यदि बल-प्रयोगके आगे फिर वह एक व्यक्तिका हो या सरकारका - सत्य और न्यायको झुकना पड़े तो वह एक बड़ी ही भौंडी परिस्थिति होगी। मेरे जीवनका ध्येय यही साबित करना है कि सत्यका समर्थन करनेवाले नीतिबलके आगे जबरदस्त से - जबरदस्त शरीर बलको झुकना ही पड़ता है। पिछले अप्रैल मासमें इतनी उत्तेजना होनेपर भी लोगोंने यदि हिंसाका आश्रय न लिया होता, तो अभी तक रौलट कानून कभीका वापस ले लिया गया होता। इस समय मेरा यह लेख लिखना जितना सुनिश्चित सत्य है, उतनी ही सुनिश्चित यह बात मेरे मनमें है। मुझे आशा है कि श्री मॉण्टेग्यु, लॉर्ड चेम्सफोर्ड और दूसरे सत्तारूढ़ अधिकारी अब समझ लेंगे कि सच्ची प्रतिष्ठा न्याय करने और लोकमतका आदर करने में ही है। परन्तु सम्भव है कि उनके विचार दूसरी तरहके हों। उस स्थिति में में सविनय अवज्ञा आन्दोलनकी शीघ्र सफलता चाहनेवालोंसे कहूँगा कि वे इसकी सुगमताके लिए वातावरण तैयार करें। हमें यदि लड़ना ही पड़ा, तो दो ताकतोंका जबरदस्त मुकाबला होगा। परन्तु परिणाम निश्चित है। सविनय अवज्ञाकी यह अपनी विलक्षणता है। अन्यायके विरुद्ध न्याय हासिल करनेका यदि लोगों के पास बिलकुल ही कोई उपाय न हो, तो उनका नाश ही हो जाये। अधिक से अधिक निश्चित और निरापद उपाय सविनय अवज्ञा है। यूरोपका उदाहरण हमें हिंसाकी पद्धतिके विरुद्ध जीती-जागती चेतावनी साबित हो रहा है। वहाँ जो सुलह हुई, उससे वहाँके देशोंको शान्ति नहीं मिली। जहाँ देखिए वहीं हड़तालें, हिंसा और लूटमार नजर आ रही है। इंग्लैंड भी जो शायद सबसे बड़ा विजेता है, इन उत्पातोंसे मुक्त नहीं है। लड़ाईमें हुई विजयसे विशाल जनसमुदायको कोई सन्तोष नहीं मिला। हिन्दुस्तानको दो शस्त्रोंके बीच चुनाव करना है। हिंसाका शस्त्र टूटा-फूटा है और