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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

मेरठ

शामकी गाड़ीसे मैंने कानपुर छोड़ा। दूसरे दिन सुबह यानी तारीख २२ को सुबह में मेरठ पहुँचा। जी॰ आई॰ पी॰ लाइनसे लाहौर जाते हुए मेरठ रास्तेमें पड़ता है। मैंने वहाँ कुछ घन्टे बिताने का वचन दिया था। मेरठवासियोंने बड़ी तैयारी कर रखी थी। हिन्दू-मुसलमानोंके बीच वहाँ मेरे प्रति प्रेम-प्रदर्शनकी होड़-सी चल रही थी। अली भाई वहाँ कुछ ही दिन पहले गये थे। उन्हें एक हिन्दू सज्जनके घर ठहराया गया था। मुझे मेरठके प्रसिद्ध मुसलमान बैरिस्टर भाई इस्माइलखाँके घर ठहराया गया। स्वागत समारोह में ७५० स्वयंसेवक उपस्थित थे जिनमें कई प्रतिष्ठित परिवारोंके लोग थे। घोड़ोंपर सवार स्वयंसेवकका दल भी था। तीन मील लम्बे रास्तेपर झण्डोंसे सजाये हुए खम्भे लगाकर रस्सी बाँधी गई थी। जलूस रस्सियोंके भीतर-भीतर चल रहा था और बाहर दर्शक समुदाय था। जलूसमें बाजे, ऊँट-गाड़ियाँ, घुड़सवार, फैन्सी ड्रेसवाले आदि थे। मेरा अनुमान है कि वह एक मील लम्बा तो रहा होगा। आसपासके गाँवोंसे हजारों लोग आये थे। किन्तु व्यवस्था बहुत सुन्दर थी। मुझे नगरपालिका, खिलाफत कमेटी, साधारण जनसमाज, हिन्दू स्त्रियों और मुसलमान स्त्रियोंकी ओरसे मानपत्र दिये गये। स्त्रियोंकी एक अलग सभा आयोजित की गई थी। उनका हर्ष और उत्साह छलका पड़ रहा था। लगभग हजार स्त्रियाँ आई होंगी। मैं तो बहुत असमंजसमें पड़ गया। यह सारा प्रेम यदि में स्वीकार करूँ तो उसे पचाऊँगा कैसे? मैंने तो सब वहीं कृष्णार्पण कर दिया।

खिलाफत के सम्बन्धमें मेरी स्पष्टवादिता मुसलमान भाइयोंको बहुत प्रिय लगी है। जबतक उनकी बातको न्यायका आधार प्राप्त है और वे किसी प्रकारकी हिंसा किये बिना लड़ते रहते हैं तबतक में उनके लिए अपने प्राण अर्पित करूँगा किन्तु यदि वे कोई अनुचित माँग करते हैं तो में उन्हींके खिलाफ सत्याग्रह करूँगा—मेरे ये वाक्य उनको पसन्द आये हैं। मेरे इस कथनसे वे शक्ति और प्रेरणा ग्रहण कर सके हैं। हिन्दू और मुसलमान दोनोंको सत्यके आग्रहकी बात, फिर चाहे वे उसका पालन करें या न करें, पसन्द आई है। और इसलिए वे मेरे ऊपर प्रेमकी वर्षा कर रहे हैं। सत्यका मेरा आग्रह जिस समय उनके खिलाफ होगा तब वे मेरा तिरस्कार भी करेंगे। जो प्रेम करता है उसे तिरस्कार करनेका अधिकार है ही।

मुजफ्फरनगर

मेरठसे मुझे रातोंरात मोटरमें मुजफ्फरनगर ले जाया गया। यहाँ हिन्दू-मुसलमानोंके बीच कुछ मनोमालिन्य हो गया था। मुझे वहाँ उसे मिटानेके लिए ही ले जाया गया था। मोटर रातको ९ बजे पहुँची। लोग उत्साहसे पागल हो गये थे। कोई किसीकी बात सुन ही नहीं रहा था। घुड़सवार तो यहाँ भी थे किन्तु मेरठ जैसी सुव्यवस्था नहीं थी। लोगोंने मोटरको घेर लिया। लोगोंने मुझे उसमें से बड़ी मुश्किलसे निकालकर घोड़ागाड़ी में बिठाया। लोगोंका हर्षनाद सहन करने की शक्ति मुझमें बिलकुल नहीं रह गई थी। सच तो यह है कि मैंने अपने कानोंमें रुई के फाहे ठूँस रखे थे। एक भाईके पाँवमें चोट लगी। मुझे अब्दुल हफीजकी याद आई। जिस भाईको चोट आ गई