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पंजाबकी चिट्ठी—९

थी उसे मैंने गाड़ी में बिठा लिया। लोगोंसे दूर होनेकी प्रार्थना की। कौन किसकी सुनता? तब मैंने अपना शस्त्र बाहर निकाला। मैंने कहा कि यदि लोग दूर नहीं होंगे और गाड़ी चलाई जायेगी तो मैं नीचे कूद पड़ेगा। मैं यह नहीं सह सकता कि किसीको भी चोट लगे। मेरे इस चमत्कारपूर्ण शस्त्रका बिजली जैसा प्रभाव हुआ। लोग शान्त हुए, घबराये और हट गये; मैंने तुरन्त गाड़ी चलानेको कहा। अब तो नियंत्रण मेरे हाथमें आ गया था। इसमें काफी समय गया। रास्तेमें लोगोंने दीपावली कर रखी थी। उसमें से निकलते-निकलते समय बीत गया। अभी सभा होनी बाक़ी थी। मेरी गाड़ीका समय हो गया था। दूसरे दिन सुबह तो लाहौर पहुँचना ही था। लेकिन लोग समझ गये थे कि अब किसी प्रकारका शोर-गुल करना या मेरे आसपास भीड़ करना ठीक नहीं होगा। रातको ११ बजे मण्डपपर पहुँचे। वहाँ सभा में अपने-आप अद्भुत व्यवस्था हो गई थी। चार हजार या उससे भी ज्यादा लोग रहे होंगे। मेरा गला कुछ बैठ गया था। किन्तु लोगोंने ऐसी शान्ति रखी कि सब लोग दूरतक मेरी आवाज सुन सके। अपने भाषण में मैंने कहा कि यदि हम लाखों लोगों में काम करना चाहते हैं तो हमें व्यवस्था करना सीखना चाहिए। फिर स्थानिक झगड़ेकी चर्चा करते हुए उन्हें एक-दूसरेकी बात सहन करने और झगड़ा शान्त करने की सलाह दी। और फिर लोगोंने वहाँसे विदा ली। इस तरह भाग-दौड़ करते हुए इन दोनों शहरोंके दर्शन करके तारीख २३ की सुबह में लाहौर पहुँच गया।

कैसा चमत्कार!

अपने स्वामीसे वियुक्त श्रीमती सरलादेवी जहाँ पहले सिंहनीकी भाँति अकेली रहती थीं, वहाँ इस बार मैंने पति-पत्नी दोनोंको देखा। पंडित रामभजदत्त चौधरीको जेलसे निकले काफी समय हो चुका था। सरलादेवीके चेहरेपर मैंने अनोखा ही तेज देखा। या शायद मैं अन्याय कर रहा हूँ। क्योंकि वियोग-कालमें भी सरला देवीने अपना तेज खोया नहीं था। फिर भी उस समयके और इस समयके तेजका भेद तो मैं देख सकता था। या ऐसा कहूँ कि मुझे उसका आभास हो रहा था। इतना तो निस्सन्देह कहा जा सकता है कि सरलादेवीके घर रहते हुए मुझे पहले जो आघात पहुँचा था चौधरीजीके आनेके बाद अब वह दूर हो गया है।

खिलाफत के बारेमें चर्चा

यहाँ पहुँचते ही मुझे एक सलाह-मशविरेमें भाग लेना था। ऐसा तय हुआ था कि मैं लाहौर में २३ तारीखको अली भाइयों और अन्य प्रमुख इस्लामी नेताओंसे भेंट करूँगा। इसलिए वे भी किसी दूसरी ट्रेनसे वहाँ आ पहुँचे और सारा दिन उनकी माँगोंका मसविदा बनाने में बीता। सरलादेवीजीका घर धर्मशाला-जैसा हो गया हैं। इन सुविख्यात मुस्लिम नेताओंका आतिथ्य सत्कार सरलादेवी एक सगी बहनकी तरह कर रही थीं। इस तरह मसविदा बनाते-बनाते और सत्कारका सुख लेते-लेते रात हो गई तथा अली भाइयोंके जानेका समय आ गया। "जिस समय तुम सत्याग्रह करो उस समय मुझे बुलाना; यदि तुमने सत्याग्रह नहीं किया तो फिर मैं तुम्हारे साथ नहीं हूँ"