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परिशिष्ट

उसे निश्चय हो जाये कि किसी इलाकेमें वर्षाके अभाव या किसी अन्य कारणसे फसल पूरी तरह या अंशतः खराब हो गई या मारी गई है और इसलिए वहाँ लगान वसूली मुल्तवी करना जरूरी होगा तो वह ऊपर (अनुच्छेद १ में) बताई गई दरोंपर वैयक्तिक परिस्थितियोंपर विचार किये बिना सब किसानोंका लगान मुल्तवी कर सकता है। इन दरोंका उपयोग कैसे करना चाहिए, यह भारत सरकारके २५ मार्च, १९०५ के प्रस्तावके अनुच्छेद १० में दिया गया है। सरकारने आँख मूंदकर इस फार्मूलेका पालन करना ठीक नहीं माना; लेकिन यह राय जाहिर की है कि राहत देने के बारे- में सामान्य मार्गदर्शनके लिए गणितके आधारपर कोई प्रामाणिक तालिका बनाई जानी चाहिए। खेड़ाके आन्दोलनने इन सिद्धान्तोंकी उपेक्षा की; यह सच है कि श्री गांधीने मईके आरम्भ में स्वीकार किया था कि "लगान रियायतके रूपमें मुल्तवी किया जाता है, कानून द्वारा प्रदत्त अधिकारके रूपमें नहीं।" लेकिन उन्होंने स्पष्ट रूपसे यह नहीं माना है कि दोनों में यह मूलभूत अन्तर इस कारण नहीं है कि सरकार निरंकुशतापूर्वक लोगोंको अधिकार देने से इनकार करती है, बल्कि इसका कारण यह सीधी-सादी बात है कि निश्चित लगानकी तत्कालीन प्रणालीके अन्तर्गत किसान एक अवधिके लिए किये गये बन्दोबस्तको मानकर कुछ वर्षोंतक बुरी फसल होनेपर भी उतना ही लगान देनेका वायदा करता है, जितना वह अच्छी फसल होनेपर देता है। इस प्रकार वे निम्नलिखित रूपसे आन्दोलनका समर्थन करते हैं: "प्रशासनिक आदेशोंके बारेमें जहाँ-कहीं स्थानीय अधिकारियों और किसानों में तीव्र मतभेद होते हैं, वहाँ मतभेदोंके मुद्दे एक निष्पक्ष जाँच समितिको सौंपे जाते हैं और सौंपे जाने चाहिए।" वे यहाँतक कहते हैं कि जब कमिश्नरका राहतके परिमाणके सवालपर लोगोंसे मतभेद हो, तब लोगोंको सन्तुष्ट करना कमिश्नरका कर्त्तव्य है। इससे लगता है कि श्री गांधीने जो यह बात स्वीकार की थी कि लगान मुल्तवी करना रियायत है, वह तत्त्वतः इनकार करना ही है। इसके अलावा श्री गांधीका यह आग्रह भी अनुचित है कि नियमों में बताई गई लगान मुल्तवीकी दरपर कड़ाईसे कायम रहना चाहिए। वे अपने २९ मार्च, १९१८ के पत्रमें लिखते हैं: "राजस्व नियमोंके अन्तर्गत यदि फसल चार आने भर (अर्थात् सामान्य फसलकी एक तिहाई) है तो किसान इस बातके हकदार हैं कि उस वर्ष उनका पूरा लगान मुल्तवी किया जाना चाहिए।" वे किसी चीजके "हकदार नहीं" हैं; और जिस तालिकाके अनुसार राहत देनेकी अपील की गई है, वह अपने आपमें कोई निरपेक्ष व्यवस्था नहीं है, बल्कि कलक्टर के लिए सामान्य तौरपर पथप्रदर्शकके रूप में है। जैसा कि भारत सरकारने २५ मार्च, १९०५ के अपने प्रस्तावके अनुच्छेद ९ में कहा है, "इसका मतलब जरूरी तौरपर यह नहीं है कि आधीसे ज्यादा फसल खराब होनेपर हमेशा राहत दी जानी चाहिए, क्योंकि यह (राहत) उससे पहलेकी फसलकी दशा और सम्बन्धित फसल (जिसके लिए राहत मांगी जा रही है) के महत्त्वपर निर्भर करती है।" यह एक दूसरा मुद्दा था, जिसकी आन्दोलनमें लगातार उपेक्षा की गई। इस प्रश्नके अतिरिक्त कि किसानों को कुछ हालतों में लगान मुल्तवी करवानेका अधिकार है या नहीं सरकार आन्दोलनकारियोंके इस तर्कको नहीं मान सकती कि किसानोंको फसल-