आधा स्वतन्त्र और आधा गुलाम नहीं रह सकता। मैं लिंकनकी बातका पूरा समर्थन करता हूँ। मैं सबकी स्वतन्त्रताका हामी हूँ। मैं चाहता हूँ कि पुस्तकोंमें निहित ज्ञानका भण्डार एक अदनासे अदना नौकरके लिए भी खुला रहना चाहिए।
४. आप [छात्रोंको] उच्च शिक्षा विदेशोंमें दिलायें। आप जानते हैं कि जापान एक प्राचीन देश है। उसके कितने ही वर्तमान नेताओंकी शिक्षा विदेशों में हुई है। कहा जाता है कि अमरीकाकी शिक्षण संस्थाओंमें इस समय १,२०० जापानी छात्र पढ़ रहे हैं। चीन भी एक प्राचीन देश है। गांधीजी, क्या आप जानते हैं कि (क्षतिपूर्ति निधि द्वारा) एक प्रतियोगी परीक्षा के माध्यमसे हर वर्ष ५० हाईस्कूल-पास सर्वोत्कृष्ट चीनी छात्र चुने जाते हैं और उन्हें इस स्पष्ट वादेके साथ अमरीका भेजा जाता है कि वे वहाँ ७ वर्षतक पढ़ेंगे और उसके बाद लौटकर चीन आयेंगे। इस प्रकार भेजे जानेवाले इन युवक-युवतियों में से प्रत्येकको हर साल पूरे खर्चके लिए ढाई हजार रुपया दिया जाता है और उनसे अमेरिका आने-जानेका भाड़ा नहीं लिया जाता। मुझे यह व्यवस्था अच्छी मालूम देती है। इसका मतलब यह हुआ कि अमरीकी संस्थाओंमें हर समय ७५० चीनी छात्र पढ़ते हैं और प्रथम स्थान पानेके लिए अमरीकी युवकों और युवतियोंसे प्रतिस्पर्धा करते हैं। वहाँ उनका स्वागत किया जाता है। वे जो चाहते हैं, वह पढ़ते हैं और अमरीकाके पास जो सर्वोत्कृष्ट आदर्श हैं उन्हें लेकर वे स्वदेश लौटते हैं। गांधीजी, क्या आपको यह सब ठीक जँचता है? मैंने एक बार सुना था कि आपके देशके सूरत शहरमें एक बोहरा-निधि है, जिसमें ५० लाख रुपये जमा हैं और बिना किसी उद्देश्यके। इस प्रकार भारतमें काफी मात्रामें धन व्यर्थ पड़ा है। मान लें कि ५० लाख रुपयेसे, जिसपर ५ प्रतिशत ब्याज मिल सकता है, युवकों और युवतियोंको विदेशी कॉलेजों में पढ़नेके लिए भेजा जाये। प्रत्येकको यदि ढाई हजार रुपये प्रतिवर्ष दिय जायें, तो १०० छात्र-छात्रायें दुनियाके विश्वविद्यालयों में उनका मर्म जान लेनेके लिए वहाँ व्यस्त रह सकते हैं। गांधीजी, क्या यह बात आपको जँचती है? जब मैं इस बारेमें सोचता हूँ तो मुझे दुःख होता है। मुझे दुःख होता है कि बेकार पड़े इन करोड़ों रुपयोंके बदले हमें कुछ भी नहीं मिल पाता; बिलकुल ही कुछ नहीं। हमारे प्रतिभाशाली युवक और युवतियाँ थोड़ा-सा आगे बढ़नेके लिए अकसर भाग्य से संघर्ष करते रहते हैं और यह धन यों ही पड़ा रहता है। इस प्रस्तावित योजनाकी सफलताके लिए कुछ बातें जरूरी होंगी, जैसे छात्रों और छात्राओंका चुनाव प्रतियोगितामूलक परीक्षा द्वारा किया जाये और उन्हें वे जिस बाहरी देशमें जाकर पढ़ना चाहें, भेज दिया जाये। अलबत्ता पढ़ाईके बाद उनका स्वदेश लौटना आवश्यक रहे।
५. गांधीजी, इस अनुच्छेदको लिखते हुए मैं गदगद हूँ, मैं आपको अब्राहम किनकी एक बात सुना रहा हूँ। जब उन्होंने वकालत शुरू की तो उन्होंने स्पष्ट घोषित किया कि वे तबतक किसी भी मुकदमेकी पैरवी नहीं करेंगे जबतक कि उन्हें विश्वास नहीं हो जाता कि वह सच्चा है और लिंकन - अमरीकियोंको किसी अन्य व्यक्तिका नाम उतना प्रिय नहीं जितना कि लिंकनका - अपने इस मौलिक निर्णय से कभी विचलित नहीं हुए। इस उदाहरणमें वकील समाजके लिए एक सुझाव