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परिशिष्ट

और उसपर जोर दिया जाये। इसी कारण हमारा यह प्रातिनिधिक शिष्टमण्डल आदरपूर्वक आपकी अनुमतिसे इसे आपके सम्मुख व्यक्त करनेके लिए आनेपर बाध्य हुआ है। एक लम्बे युद्धके बाद, जिसमें दुनियाके प्रायः सभी सभ्य देश इस या उस ओरसे लड़े और जिसमें विजय प्राप्त करनेके लिए उन्होंने अपना खून बहाने और धन खर्च करनेमें पड़ोसियोंसे होड़ लगा दी थी और जिसकी भयंकरता और विभीषिका अभूतपूर्व थी, उसका जिन लोगोंपर अप्रत्यक्षरूपसे ही सही लेकिन फिर भी बहुत अधिक प्रभाव पड़ा; उनका उसकी समाप्तिपर लड़ाईकी भारी थकान महसूस करना और मानवोंके महत्त्वपूर्ण मसलोंको तलवारसे हल करनेके पुराने तरीकेसे अत्यधिक घृणा करना स्वाभाविक है। सारी दुनियाके द्वारा एक स्वरसे जल्दी से जल्दी स्थायी शान्तिको स्थापनाकी माँग भी उतनी ही स्वाभाविक है। लेकिन युद्ध बन्द हुए एक वर्षसे ज्यादा हो गया है और जर्मनीको भी शान्ति-सन्धिपर हस्ताक्षर किये ६ महीने से ज्यादा हो गये, फिर भी अभी शान्ति मानव-जातिसे कोसों दूर है। हमारे महाद्वीप, एशियाकी यह आशंका भी निराधार नहीं है कि इसके परिणामस्वरूप ऐसी घटनाएँ घटेंगी जिनके बारेमें अभी कोई भी अन्दाज लगाना असम्भव है। लगता है कि दुनिया फिर किसी गम्भीर संकटकी ओर अग्रसर हो रही है। यद्यपि किसी हदतक निश्चित रूपसे, यह बताना सम्भव नहीं है कि जो तूफान साफ उठता दिखाई दे रहा है, उसकी लपेटमें कौन-कौनसे देश और कौन-कौनसी जातियाँ आयेंगी, लेकिन यह कहनेके लिए किसी पैनी दृष्टिकी जरूरत नहीं है कि जब यह तूफान उठेगा तो इस्लामी जगत् उससे अछूता नहीं बचेगा। किसीके प्रति असम्मान की भावना रखे बिना हम यह कहना चाहते हैं कि इस अवसरपर इस संयुक्त साम्राज्यके केन्द्रीय अधिकारियोंको इस बात का पता रहना बहुत जरूरी है कि विश्व भर में फैले हुए इस साम्राज्यके दूरस्थ भागों में क्या-कुछ हो रहा है। हम साम्राज्यके राजनीतिज्ञोंसे कमसे कम यह आशा तो रख ही सकते हैं कि अन्तिम समझौता करते समय वे ७ करोड़ मुसलमानोंके अत्यन्त अनिवार्य धार्मिक कर्त्तव्यों और उनकी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भावनाओं तथा उनके २० करोड़ अन्य देशवासियोंकी उनके प्रति उतनी ही गहरी सहानुभूतिको ध्यान में रखेंगे। किसी-न-किसी कारणसे लड़ाईके दिनोंमें ये भावनाएँ और सहानुभूति काफी जोरदार ढंगसे व्यक्त नहीं की जा सकीं। उन धार्मिक कर्त्तव्योंकी, जिनका जिक्र हम ऊपर कर चुके हैं, अभिव्यक्ति भी उतनी स्पष्टताके साथ जोर देकर नहीं की गई जो एक धर्मके अनुयायियों द्वारा दूसरे विदेशी धर्मको माननेवाले शासकोंको अपना धार्मिक सिद्धान्त समझा सकनेके लिए अनिवार्य है। और इस बातका हमें इतना अफसोस है कि जिसे व्यक्त नहीं किया जा सकता।

भारतीय मुसलमान जिन कारणोंसे विचलित हुए हैं उनपर लम्बी चर्चा करनेका न तो यह कोई समय है और न स्थान ही। यह समय और स्थान उन सिद्धान्तोंकी व्याख्या करनेके लिए भी उपयुक्त नहीं है जिन्हें मुसलमान अपनी मुक्तिके लिए अनिवार्य मानते हैं। यहाँ यह कहना काफी होगा कि एक वर्षसे अधिक समय पूर्व जब युद्ध-विराम हुआ था तबसे अबतक उन्होंने अपन धर्मके उन मूलभूत सिद्धान्तोंकी व्याख्या