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परिशिष्ट

करनेमें किसी खयालसे उनके हितों और उनकी इच्छाओंका त्याग न करेगा; इसलिए हम विश्वास करते हैं कि हमें मित्र राष्ट्रों और साथी राष्ट्रों और उनकी सरकारों को यह समझानेका मौका दिया जायेगा कि मुसलमानोंके कर्त्तव्य क्या हैं, कितने अनिवार्य हैं और मुसलमानोंकी आकांक्षाओंका सही रूप और क्षेत्र क्या है। संयुक्त राज्य अमेरिकाके राष्ट्रपतिने भावी शान्ति सन्धिकी जो स्पष्ट शर्ते रखी थीं और जिनके आधारपर टर्कीके खलीफाने युद्ध-विराम समझौता किया था, उन्हें तथा ब्रिटेनके प्रधान मन्त्री द्वारा कुस्तुनतुनियाँ, थ्रेस और तुर्कोंकी मातृभूमिके सम्बन्धमें किये गए स्पष्ट वायदोंको यहाँ दुहराने की जरूरत नहीं है। हम आदरपूर्वक निवेदन करते हैं कि ब्रिटेन, उसके मित्र और साथी राष्ट्रोंको, अपने वचनोंको पूरा न करनेके परिणामस्वरूप जो नैतिक हानि उठानी पड़ेगी, उसकी पूर्ति उसके किसी वास्तविक या कल्पित, सम्भावित, प्रादेशिक अथवा राजनीतिक लाभसे नहीं हो सकती और अब पीछे अनुत्तरदायी लोग उन वचनोंकी जो चतुराई-भरी व्याख्या कर रहे हैं, वह जिम्मेदार अधिकारियोंके लिए किसी भी तरह सहायक सिद्ध न होगी। आपके पूर्वाधिकारीने टर्कीसे युद्ध आरम्भ होनेपर ब्रिटिश सरकारके जिस वचनकी घोषणा की थी, दुःखकी बात है कि वह भ्रम ही सिद्ध हुआ; परिणामस्वरूप साम्राज्यकी नैतिक प्रतिष्ठाको लगनेवाला यह धक्का और भी जोरसे महसूस किया जायेगा।

इन गम्भीर वचनोंको पूरा न किया जानेकी आशंका और सर्वत्र पोषित इन भावनाओंकी लगभग पूर्ण अवहेलनासे भारतके मुसलमान आज जो इतने उद्विग्न हैं, इसका कारण यह नहीं है कि उनका एकमात्र सहारा ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रोंके वचन ही हों। फिर वे ऐसी उम्मीद भी नहीं करते कि इतने व्यापक और जटिल परिणामोंसे युक्त कोई समझौता उनकी इच्छाओं और हितोंकी दृष्टिसे ही किया जा सकता है। भारतके मुसलमानोंका कार्य तबतक पूरा नहीं होता जबतक वे उन लोगोंको जिन्होंने उनकी धार्मिक स्वतन्त्रताकी पूरी रक्षा करनेकी जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है, यह साफ-साफ नहीं बता सकते कि महामहिम सम्राट्की सरकार और मित्र राष्ट्र प्रत्यक्षतः खिलाफत और सम्बन्धित प्रश्नोंके सम्बन्धमें समझौतेकी जो रूपरेखा प्रस्तुत कर रहे हैं, इससे वे अत्यन्त चिन्तित हैं। इस प्रकारके समझौतेको कोई भी मुसलमान अपनी मुक्तिकी आशा खोये बिना स्वीकार नहीं कर सकता, न उससे सहमत हो सकता है। यह एक प्रधान कारण है, जिसकी ओर ध्यान दिया जाना चाहिए। और यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि यदि ऐसे किसी समझौतेको उस्मानी साम्राज्य (टर्की) के तुर्कोंसे मनवाया भी जा सके तो भी वह हर सच्चे मुसलमानको पूर्णतः अस्वीकार्य ही रहेगा।

खिलाफतको लौकिक एवम् आध्यात्मिक दोनों ही रूपोंमें बनाये रखना इस्लाम धर्मका केवल अंग ही नहीं बल्कि सार है। जो धर्म सांसारिक और आध्यात्मिक बातों में चर्च और सरकार में छिन्न-भिन्न और निर्जीव बना देनेवाले अन्तरको बरदाश्त करते हैं, इस्लामकी उनके साथ तुलना करनेसे कोई उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा। उससे तो जो मामले बिलकुल स्पष्ट हैं वे और भी अस्पष्ट हो जायेंगे। लौकिक शक्ति तो

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