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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

खिलाफत की संस्थाका सार ही है और मुसलमान उसके स्वरूप में परिवर्तन या खलीफाके साम्राज्यका उच्छेद कभी स्वीकार नहीं कर सकते। अरब प्रायद्वीपका प्रश्न भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसके किसी भी भागपर किसी तरहका गैर-मुस्लिम नियन्त्रण सहन नहीं किया जा सकता। यह प्रश्न भी स्पष्टतः मुसलमानोंकी भावनाका प्रश्न नहीं बल्कि इस्लाम धर्मका प्रश्न है। इसी प्रकार इस्लामने अपने तीर्थ-स्थानोंको पवित्र घोषित कर दिया है और उसकी व्याख्या भी कर दी है। इस्लाम धर्मके अनुसार दूसरे धर्मके वे लोग जो इसके विषय में कुछ नहीं जानते इस मामलेकी और ऐसे ही अन्य मामलोंकी व्याख्या करनेके अधिकारी नहीं हैं। मुसलमानोंका आग्रह है, और उसके पीछे पूरा कारण है, कि इस्लामके पवित्र स्थानोंका संरक्षक केवल खलीफा ही रह सकता है। जहाँतक खलीफाके राज्यकी अखंडताका सवाल है, हमें इस बातपर दुःख है कि अरबके मुसलमानोंके कुछ वर्ग इस्लामी कानूनोंकी स्पष्ट अवहेलना करके दुनियाके शेष मुसलमानोंके समवेत समुदायसे अलग हो गये हैं। लेकिन यह बात शेष मुसलमानोंके खिलाफ एक तर्कके रूपमें नहीं रखी जा सकती; बल्कि यह एक और कारण है जो उन्हें सचाईकी घोषणा करनेके लिए बाध्य करता है। और इस खुदाई ऐलानके अनुसार कि सब मुसलमान आपसमें भाई-भाई हैं और इस खुदाई हुक्मके अनुसार कि भाइयोंमें आपसमें मेल कराया जाये, भारतके मुसलमानोंका फर्ज है कि वे उन सब गलतफहमियोंको, जो आज देखने में आ रही हैं, मिटानेका प्रयास करें और तनावके उन कारणों को दूर करें जो अरबोंको अजामसे और तुर्कोंको ताजिकसे पृथक कर सकते हैं। इस्लामी भाईचारेका तर्कसम्मत अर्थ यह निकलता है कि सब मुसलमान दुनियाके हर कोने के अपने मुसलमान भाइयोंके दुःख और कष्टोंमें हिस्सा बटाएँ और इस बातका ध्यान रख कि ऐसे व्यापक सिद्धान्त, जैसे, यह आत्मनिर्णयका सिद्धान्त है, मुसलमानोंपर भी उतने ही लागू किये जायें, जितने ईसाइयोंपर और एशियाइयोंपर भी उसी प्रकार लागू किये जायें, जैसे यूरोपियोंपर। यह सही है कि यूरोप और ईसाई जगतका बड़ा हिस्सा टर्कीके तुर्कीपर धार्मिक अन्याय और राजनीतिक अविवेकका आरोप लगाता है, लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि जो लोग ऐसे आरोप लगाते हैं, वे स्वयं भी पुराने तअस्सुबों और बादमें उत्पन्न कटुता से मुक्त नहीं हैं। हमें विश्वास है कि इतिहास समय आनेपर उस कठिन परिस्थितिको पूरी तरह ध्यान में रखकर अपना फैसला देगा, जिसमें उस्मानी साम्राज्य के तुर्क सदियोंसे रहते आ रहे हैं और तब इस्लामकी बुनियादी सहिष्णुता और तुर्कोंकी मूलभूत दयालुता प्रमाणित होगी। पूरे ब्रिटिश शासन कालके इतिहासमें भारतके मुसलमानोंकी अपने सम्राट्के प्रति वफादारी, एक स्थायी निधिके रूपमें स्वीकृत और घोषित की गई है। यह अन्य जातियोंकी वफादारीसे कम नहीं है। यह भी स्वीकार किया गया है कि उनकी धार्मिक स्वतन्त्रताको पूरी तरह बनाये रखनेपर ही यह वफादारी निर्भर है, और यही मुख्यतः इसका आधार है। यदि सरकारको मुसलमानोंकी और वास्तवमें भारतके हर सम्प्रदायकी वफादारीके इस पहलूकी याद दिलानेकी कभी आवश्यकता नहीं पड़ी है, तो उसका कारण यही है कि हम कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि अबतक ऐसा कोई सवाल ही पैदा नहीं