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भाषण : गोधराकी सार्वजनिक सभा में

वाइसरायसे लेकर एक झाड़ू लगानेवाला तक सभी स्वदेशी अपना लें; इसलिए मेरी इच्छाभाषण : गोधराकी सार्वजनिक सभा में ३३ आर्थिक तथा धार्मिक दृष्टिकोणसे स्वदेशीका प्रचार करनेकी है। श्री क्लेटनने सभा में अधिकारियों को आनेकी अनुमति प्रदान कर दी है, में इसलिए भी उनका आभारी हूँ। मेरे लिए [ किसी भी बातका ] धार्मिक पहलू ही सब कुछ है। मानव जातिमें समान रूपसे पाया जानेवाला मूल धर्म हमें दयालुता और पड़ोसियोंका ध्यान रखना सिखाता है। यदि यह सही है कि अपने पड़ोसियोंकी सेवा करना देश और मानवताकी सेवा करना है, तो अपने किसानों और कारीगरों - जैसे कि बुनकरों, बढ़इयों आदि की मदद करना हमारा नैतिक कर्तव्य है। और यदि गोधराके किसान और बुनकर गोधराके नागरिकोंकी जरूरतें पूरी कर सकते हैं, तो यहाँके लोगों को गोधरासे बाहरके, मसलन बम्बईके भी, किसानों और बुनकरोंकी जरूरतें पूरी करनेका कोई हक नहीं। अपने पड़ोसीको भूखा रखकर उत्तरी ध्रुवके अपने दूरके भाई-भतीजोंकी सेवा करनेका मेरा दावा सही नहीं हो सकता। सभी धर्मोका यही मूल सिद्धान्त है और हम पायेंगे कि सच्चे मानवीय अर्थ- शास्त्रका भी यही मूल सिद्धान्त है। भारत एक साथ तीन-तीन शापोंसे ग्रस्त है- असाधारण रोग, भोजनकी कमी और कपड़ेकी कमी। इन सबका मुख्य कारण ज्यादातर एक ही है- गरीबी; और गरीबीका मुख्य कारण देशके धनका बराबर बाहर जाना है। हमने १९१७-१८ में भारतसे बाहरके उत्पादकोंको साठ करोड़ रुपयोंकी भारी रकम दी और अपने हजारों कातने बुननेवालोंके लिए कोई उल्लेखनीय दूसरा धन्धा भी नहीं जुटाया। इस प्रकार श्रमका यह समूचा स्रोत जैसे एक वेगपूर्ण जल-प्रवाहकी तरह व्यर्थ ही बहनेके लिए खोल दिया गया है। अनजाने में की गई इस भूलको केवल इसी तरह सुधारा जा सकता है कि हम स्वदेशीकी ओर लौटें और अपने कातने बुननेवालोंको उनके पहले सम्मानित धंधे में फिरसे जमाया जाये। इस महत् कार्यमें अधिकारियों, करोड़पतियों और समाजके अन्य नेताओंको मदद करनी चाहिए। देशकी यह आवश्यकता तत्काल पूरी की जानी चाहिए। देशमें इक्कीस करोड़ किसान हैं। मेरे अपने अनुभव और अधिकारी लेखकोंके अनुभवसे यह स्पष्ट है कि सालमें लगभग चार महीने इनके पास कोई काम नहीं रहता। फिर ताज्जुब क्या कि वे गरीब हैं। शक्तिका यह बहुत- बड़ा अपव्यय है। इसलिए स्वदेशीको समस्या किसानोंको कातने- बुननेका एक अनुपूरक धंधा अपनानेके लिए प्रोत्साहित करनेकी समस्या है। अपने शास्त्रों और समस्त संसार में कताई-बुनाईका इतिहास यही बताता है कि सदासे रानियोंसे लेकर उनकी दासियोंतक ने रुई कातनेको सम्मानका काम माना है। बुनाई में बहुत लोग विशेष दक्षता प्राप्त कर लेते थे। समृद्धिके उन दिनोंमें जब हमारी माताएँ राष्ट्रके लिए सूत कातती थीं, हम अच्छी-अच्छी मलमल तैयार कर लेते थे। हम अब भी उस लुप्त कला और उसके साथ लुप्त होजानेवाली सम्पन्नताको पा सकते हैं। परन्तु जरूरत इस बातकी है कि लोग केवल स्वदेशी कपड़ा लेने और जहाँतक हो सके उसे स्वयं तैयार करनेका आग्रह करें। पंजाब में उच्च कुलोंकी हजारों महिलाएँ अपने लिए सूत स्वयं कातती हैं।

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