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सर शंकरन नायर और सरकार

ही नहीं, बल्कि खेड़ाकी लगभग समस्त जनताके बयानोंको गलत ठहरा दिया। किसी भी रूप या आकारमें जनताके प्रति उत्तरदायी कोई भी सत्ता ऐसा आरोप लगाने से झिझकती। तथापि हमारी आजकी व्यवस्थामें सरकारकी बातको लोग डरके मारे आँखें बन्द करके सत्य, पूर्ण सत्य और शुद्ध सत्यकी तरह स्वीकार करने पर बाध्य हो जाते हैं। भले ही इसे सच माननेमें जनताके विशाल समुदायकी बातको गलत कहना पड़े। सर शंकरन् ने लिखा था कि पहले इस इलाकेकी आर्थिक दशा अच्छी थी; सरकारने इस बातको एकदम अस्वीकार किया है। मैं टिप्पणीकारोंको चुनौती देता हूँ कि वे जिलेके गाँवोंका स्वयं जाकर निरीक्षण करें और उनकी जीर्ण-शीर्ण इमारतोंके मूक बयानोंको पढ़ें तथा अपने दिलोंपर हाथ रखकर कहें कि वे इमारतें क्या प्रमाणित करती हैं। सरकारने यह भी कहा कि "राहत देनेके लिए जो कदम उठाना मंजूर किया जा चुका था" उसपर खेड़ाके आन्दोलनोंका "कोई खास असर" नहीं हुआ और परिणामस्वरूप "सरकारी लगानकी अदायगीका निर्णय रैयतकी ही मरजीपर" नहीं छोड़ा गया। मैं तो सिर्फ यही कह सकता हूँ कि सरकार और उसके जिन वरिष्ठ अधिकारियोंके दिये हुए वचन इस तरह टूटे, उनके लिए यह अच्छा नहीं हुआ। उनमें से एकने तो लगभग दो सौ लोगोंके सामने मुझसे कहा था कि गरीब खेतिहरोंके मामलोंमें लगान- वसूलीकी मुल्तवीकी अनुमति दी जायेगी और गरीबीके कारण लगान-अदायगीकी असमर्थताके प्रश्नपर गाँवोंके प्रमुख लोगोंकी सलाहसे फैसला किया जायेगा।[१] जिला कलक्टरने भी इसकी पुष्टि की थी। लेकिन जो कुछ हुआ वह इतना गर्हित है कि उसके सम्बन्धमें अधिक कुछ कहने की जरूरत नहीं रहती। इतना ही बता देना काफी होगा कि यथासम्भव लगानकी वसूली मुल्तवी रखनेके फैसलेका लाभ कमसे कम किसानोंको ही दिया गया; वसूली मुल्तवी रखनेके आदेशोंको कोई एक महीनेसे अधिक समय- तक लोगोंसे छिपाकर रखा गया और उनको तब प्रकट किया गया जब सम्बन्धित विभागको सब-कुछ करनेके बाद भी, यह समझमें नहीं आया कि अब क्या किया जाये; वह विभाग सभी कुछ करके देख चुका था -- यानी अनुपस्थित किसानोंके मवेशी बेच दिये गये, उनके जेवरात कुर्क कर लिये गये, उनपर चौथाई (जुर्माना) लगाई गई, बकायेकी बहुत मामूली-सी रकमके बदले उनकी हजारों रुपयेकी फसलें कुर्क कर ली गईं और कमिश्नरने यहाँतक कह डाला कि उन्हें किसानोंकी तरह अपने कथन- पर अमल करनेके लिए किसी प्रतिज्ञाकी जरूरत नहीं होगी; वे किसानोंकी फसलें बेच देंगे, जमीनें छीन लेंगे और उन्हें फिर कभी मौरूसी जोतदारोंके नाम नहीं चढ़ायेंगे। मुझे यह सोचकर बड़ा दुःख होता है कि नये गवर्नर महोदय, जिनके आचरणसे इस बातके प्रमाण मिले हैं कि वे दोनों पक्षोंकी बातें सुननेको उत्सुक हैं और यथासम्भव निष्पक्षता बरतना चाहते हैं, निःसन्देह अनजाने ही, साम्राज्यीय संसदके नाम एक ऐसी टिप्पणी भेजनेके निमित्त बन गये हैं जो केवल गलत बयानियों और व्यंग्योक्तियोंसे भरी हुई है। मैंने इन तथाकथित रियायतोंका -- यानी जूनमें जिन आदेशोंका पता चला उनका -- कभी कोई फायदा नहीं उठाया। मैंने सिर्फ उत्तरसंडामें प्राप्त

  1. देखिए खण्ड १४, पृष्ठ ३९७-९८