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सर शंकरन नायर और सरकार
अधिकारियोंको कानूनी कार्रवाईमें लगाकर जो अनावश्यक खर्च उठाया उससे भी वह बच जाती। जहाँ-कहीं लगान वसूल नहीं हो पाया, वहाँके लोगोंको जानके लाले पड़ गये। कुर्कीसे बचने के लिए वे अपने घरसे बाहर चले गये। उनको भरपेट खाना नहीं मिला, औरतोंको तो ऐसी-ऐसी मुसीबतें झेलनी पड़ीं जो उन्हें किसी हालत में नहीं झेलनी चाहिए। कभी-कभी उन्हें उद्धत सर्किल इंस्पेक्टरोंके हाथों अपमानित होना पड़ा; उन्हें चुपचाप अपनी दुधारू भैंसोंको दरवाजेपर से हाँककर ले जाते देखना पड़ा। उन्होंने चौथाई (जुर्माना) भी दी। अगर उन्हें उपर्युक्त आदेशोंकी जानकारी होती तो इन कष्टोंसे उन्हें छुटकारा मिल सकता था। अधिकारीगण जानते थे कि गरीबोंको छूट न देना ही संघर्षका आधार है; कमिश्नरने तो इन कठिनाइयोंकी ओर भी ध्यान ही नहीं दिया। उनके पास कई पत्र भेजे गये, लेकिन उनके रुखमें तनिक भी नरमी नहीं आई। उन्होंने कह दिया, "व्यक्तियोंको अलगसे कोई राहत नहीं दी जा सकती; ऐसा कानून नहीं है।" अब कलक्टरका कहना है कि "जहाँतक सचमुच गरीबीके कारण लगान देनेमें असमर्थ लोगोंपर दबाव डालनेकी बातका सम्बन्ध है, २५ अप्रैलके आदेशका मतलब इस विषय में सरकारके उस स्थायी आदेशको दुहराना- भर था जिसके बारेमें सभी जानते हैं।"
अगर यह सत्य है तब तो लोगोंको जो-कुछ झेलनेपर मजबूर किया गया सो दुराग्रहके कारण जान-बूझकर ही। दिल्ली जाते समय श्री गांधीने कमिश्नरको पत्र लिखकर उनसे उपर्युक्त आशयके आदेश जारी करनेकी प्रार्थना की थी, ताकि वे परमश्रेष्ठ वाइसराय महोदयको यह शुभ संवाद दे सकते लेकिन कमिश्नरने उनकी प्रार्थनापर कोई ध्यान नहीं दिया।


"हम जनताके कष्ट देखकर विचलित हो उठे हैं, अपनी गलती समझ गये हैं और जनताको तुष्ट करनेके लिए अब हम व्यक्तियोंको अलगसे राहत देने को तैयार हैं", - अधिकारीगण उदारतापूर्वक ऐसा कहकर जनताके स्नेह- भाजन बन सकते थे, लेकिन उन्होंने दुराग्रहपूर्वक (उसके हृदयपर विजय पानेके ) इस तरीकेकी उपेक्षा कर दी। और अब भी जो राहत दी गई है वह बहुत ही कृपणता और अनिच्छाके साथ तथा अपनी गलतीको स्वीकार किये बिना दी गई है। यह भी दावा किया जाता है कि जो राहत दी गई वह कोई नई चीज नहीं है। इसीलिए हमारा कहना है कि इस निपटारे में कोई शोभा नहीं है।

अधिकारीगण अपनी हठवादिता और इस गलत मान्यताके कारण कि उन्हें कभी गलती स्वीकार नहीं करनी चाहिए लोगोंके प्रियपात्र नहीं बन पाये। वे घोर दुराग्रहपर अड़े रहे कि कहीं कभी उनके बारेमें यह न कहा जा सके कि उन्हें जन-आन्दोलन जैसी किसी चीजके सामने झुकना पड़ा था। ऐसी आलोचना करते हुए हमें सचमुच बड़ा दुःख हो रहा है। लेकिन उनके मित्रकी हैसियतसे ही हमने ऐसा करना जरूरी समझा है।