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पत्र : 'टाइम्स ऑफ इंडिया' को

अब आठ वर्षोंके कठिन संघर्षके बाद यह तो सम्भव नहीं कि मैं कोई भी कानूनी हक छोड़ दूँ; और यदि मैं छोडूंगा भी तो जिस समाजका प्रतिनिधित्व करनेका सौभाग्य मुझे प्राप्त है, वह मुझे यदि गद्दार नहीं तो एक अयोग्य प्रतिनिधि करार देकर पदच्युत तो कर ही देगा; उसका वैसा करना बिलकुल स्वाभाविक और उचित होगा।

एक तीसरा पत्र भी है जो सर्वथा अप्रासंगिक है; परन्तु वह भी समझौतेका अंग समझा जाता है और व्यापार सम्बन्धी अधिकारोंमें कटौती करनेके लिए उसका उपयोग किया गया है। वह पत्र[१] मैंने ७ जुलाईको श्री जॉर्जेसको लिखा था। पत्रकी शब्दावलीसे प्रकट है कि वह पत्र बिलकुल ही निजी है। उसमें मैंने स्वर्ण-कानून तथा बस्ती संशोधन अधिनियमसे सम्बन्धित निहित अधिकारोंके बारेमें अपना व्यक्तिगत दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। मैंने उसमें निश्चित रूपसे कहा है कि मैं अपने किसी भी शब्दसे अपने देशवासियोंका भावी कार्य-क्षेत्र सीमित नहीं करना चाहता। मैंने उसमें निहित अधिकारोंकी परिभाषा-भर लिखी है। इसी परिभाषापर ४ मार्च, १९१४ को सर बेंजामिन रॉबर्टसनसे मैंने बातचीत की थी। मैंने उसमें लिखा था कि "निहित अधिकारोंका अर्थ है भारतीय और उसके उत्तराधिकारियोंको उस बस्तीमें रहने और व्यापार करनेका अधिकार जिसमें वह निवास और व्यापार कर रहा था; फिर चाहे उसने अपनी उस बस्ती में अपने निवास या व्यवसायका स्थान कितनी ही बार क्यों न बदला हो।"[२] यहीं परिभाषा है जिसपर कानूनकी प्रवंचना तथा विश्वास-भंगका पूरा सिद्धान्त खड़ा किया गया है। मेरा कहना है कि पत्रके अप्रासंगिक होनेके अलावा, यदि उस पत्रको समझौतेका अंग मान भी लिया जाये तो उसका उपयोग जिस ढंगसे किया गया है, उस ढंगसे नहीं किया जा सकता। जैसा कि मैं पहले भी कई अवसरोंपर कह चुका हूँ व्यापार परवानोंके बारेमें स्वर्ण-कानूनकी प्रतिकूल व्याख्या सम्भव थी और भूमि या इमारतोंके पट्टे हासिल करनेमें स्पष्ट ही बड़ी कठिनाई थी और स्वर्ण-क्षेत्रमें भारतीय जी-तोड़ प्रयत्न करके ही अपने पैर जमाये रह सके हैं। "कानूनकी वैधानिक व्याख्या भारतीयोंके दावेके प्रतिकूल की जा सकती थी", किन्तु फिर भी मैं तत्कालीन व्यापारियों और उनके वारिसोंको संरक्षण दिलानेके लिए प्रयत्नशील था। अतएव ७ जुलाईके मेरे पत्र में उल्लिखित निहित अधिकारका अर्थ था एक ऐसा अधिकार जो कानूनके बावजूद अस्तित्वमें आ चुका था। और यही वह अधिकार था जिसे उस समय के प्रचलित कानूनोंके अमलमें संरक्षण देना था। अतएव मेरा उक्त पत्र यदि समझौते में शामिल मान भी लिया जाये तो मुझे ऐसी कोई व्याख्या नहीं सूझ पड़ती जिसके आधारपर कहा जा सके कि यह देशके कानूनके मुताबिक नैतिक रूपसे ( क्योंकि विश्वासभंगके आरोपका यही अर्थ है) भारतीयोंको नये परवाने पानेसे रोकता है। भारतीयोंको खुल्लम- खुल्ला और न्यायपूर्ण संघर्षके फलस्वरूप उनके हकमें यह कानूनी निर्णय मिला है कि वे स्वर्ण-क्षेत्रमें भी परवानेका शुल्क देकर व्यापार परवाने हासिल कर सकते हैं। इसका तो उन्हें पूर्णतः नैतिक अधिकार था। कानून-भंगका उसमें कोई प्रश्न नहीं हो सकता।

  1. देखिए खण्ड १२
  2. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ३६४-५