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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


वहाँ वे देखेंगे कि जीवनमें अलग-अलग दर्जा रखनेवाले स्त्री-पुरुष पूर्ण समानताके भावसे रहते हैं; जो निरक्षर हैं उनको दैनिक परिश्रमसे बचनेवाले समयमें अक्षर-ज्ञान कराया जाता है और जो पढ़े-लिखे हैं, वे कुदाली और फावड़ा लेकर काम करनेसे नहीं हिचकिचाते। वहाँ वे देखेंगे कि खेतीके कामके सिवा वहाँके सदस्य सूत कातना फर्ज समझकर सीखते हैं। उसका पुराना इतिहास देखनेपर उन्हें पता लगेगा कि जब इन्फ्लुएंजा फैला, तब उसके सदस्योंने आसपास के गाँवोंके लोगोंको दवा देनेका काम किया था और अकालके समय गरीब लोगोंको अनाज बाँटने में अकाल-समितिको सहायता दी थी। उसी समिति द्वारा जुलाहोंको काम देकर उनमें हजारों रुपये बाँटे थे और इस प्रकार देशका उत्पादन बढ़ाने में सहायता दी थी। उसके सदस्योंके प्रयत्नसे ही आज बहुत-सी स्त्रियाँ, जो अबतक कुछ भी नहीं कमाती थीं, अपने फुरसतके समयमें सूत कातकर थोड़ा-सा कमाने लगी हैं। सार यह कि 'पेनसिलवेनियन' द्वारा अंकित विस्तृत कार्यक्रमकी [कुछ] बातोंपर सत्याग्रही लोग अपनी पूरी शक्ति लगाकर अमल कर रहे हैं। यह हममें हो रही एक नैतिक क्रान्ति ही है। उसका विज्ञापन करनेसे उसमें न्यूनता आती है। आजीवन सत्याग्रही वहाँ जो रचनात्मक काम कर रहे हैं, वह इस प्रकार जाहिर करनेमें मुझे बड़ा संकोच अनुभव होता है।

मैं इतना और बता दूं कि सत्याग्रहके प्रादुर्भावसे मेरी जानकारीके मुताबिक कितने ही अराजकतावादियोंको उनके रक्तपातके सिद्धान्तोंसे विमुख किया जा सका है। उनकी समझमें आ गया है कि गुप्त संस्थाएँ बनाने और छिपकर खून-खराबी करनेसे इस अभागे देशपर सैनिक और आर्थिक भार बढ़नेके सिवा और कोई परिणाम नहीं निकलता; उससे देशपर खुफिया पुलिसका नागपाश और अधिक सख्त हो गया है और हजारों गुमराह जवानोंकी जिन्दगी बरबाद हो चुकी है। सत्याग्रहने उदीयमान पीढ़ीमें नवीन आशाका संचार किया है। जीवनके अनेक अनिष्टोंके लिए सत्याग्रह उन्हें खुला और रामबाण उपाय बताता है। नई पीढ़ीको सत्याग्रह एक अजेय और अनुपम बल- का अनुभव कराता है। इस बलका उपयोग कोई भी मनुष्य बिना किसी आपत्तिके कर सकता है। सत्याग्रह हिन्दुस्तानके युवकोंसे कहता है कि स्वयं कष्ट सहन करना ही आर्थिक, राजनैतिक और आध्यात्मिक मुक्तिका एकमात्र मार्ग है।

सत्याग्रहमें ज्यादातर 'बुराईका प्रतिकार' और 'सविनय सहायता' का समावेश रहता है। परन्तु कभी-कभी वह सविनय प्रतिकारका रूप भी ग्रहण करता है। यहाँ मैं अपनी सहायताके लिए 'पेनसिलवेनियन' के एक अन्य यशस्वी देशबन्धु हेनरी थोरोका आश्रय लूंगा। वे पूछते हैं कि "क्या कोई भी नागरिक किसी भी मात्रामें एक क्षणके लिए भी अपनी विवेक-बुद्धि विधायकको सौंप सकता है?" यह सवाल पूछकर वे स्वयं जवाब देते हैं: "मेरी समझमें तो प्रत्येक व्यक्तिको पहले मनुष्य होना चाहिए और इसके बाद प्रजा। न्यायके प्रति लोगोंके मनमें सम्मान बढ़ाना वांछनीय है किन्तु कानूनके प्रति वैसा ही करना वांछनीय नहीं है।" मैं समझता हूँ कि थोरोका तर्क अकाट्य है। प्रश्न केवल यह है कि अन्तरात्माके अनुरोधपर अमल करनेके अधिकारको स्थापित करनेके लिए क्या उपाय अपनाया जाये? प्रचलित उपाय तो यह है कि जो आपकी अन्तरात्माको आघात पहुँचाये, उसपर आप हिंसाका प्रयोग करें। थोरो अपने