४५. देशकी पुकारपर
डा॰ सप्रूने[१]इलाहाबादकी खिलाफत कान्फ्रेन्समें बड़ा जोशीला भाषण दिया। उन्होंने मुसलमानोंकी वेदनाके प्रति सहानुभूति प्रकट की, लेकिन साथ ही उन्हें असहयोग न करनेकी भी सलाह दी। उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया कि वे असहयोगके स्थानपर कोई दूसरा उपाय नहीं सुझा सकते, लेकिन उनका निश्चित मत था कि यह इलाज तो खुद मर्जसे भी बुरा है। उन्होंने यह भी कहा कि मुसलमान लोग भारतीय न्यायाधीशोंसे पदत्याग करनेका अनुरोध नहीं कर सकते और अगर वे ऐसा करते हैं तो सफल नहीं होंगे। इस हालतमें अगर वे अबोध-अज्ञान सर्वसाधारण से साथ देनेका अनुरोध करते हैं तो वे अपने सिर एक बहुत भारी जिम्मेदारी लेंगें।
मैं स्वीकार करता हूँ कि डा॰ सप्रूकी इस आखिरी दलीलमें जोर है। उनके मनमें यह भय काम कर रहा है कि अज्ञानियोंके असहयोग से परेशानी पैदा होगी और अव्यवस्था फैलेगी, लेकिन लाभ कुछ नहीं होगा। मेरे विचारसे तो किसी भी असहयोगका कुछ सुपरिणाम निकलना निश्चित है। अगर वाइसराय महोदयका दरबान यह कहे कि "हुजूर, मैं अब सरकारकी और सेवा नहीं कर सकता, क्योंकि इसने मेरे राष्ट्रीय सम्मानको चोट पहुँचाई है" और इस्तीफा दे दे तो मेरे खयालसे यह काम सरकारके अन्यायके विरुद्ध किये गये जोरदारसे-जोरदार भाषणसे भी अधिक कारगर और वजनदार साबित होगा।
फिर भी जबतक हम इस कामके लिए देशके ऊँचेसे-ऊँचे तबके से अपील नहीं करते तबतक उस दरबानसे कुछ कहना गलत होगा। इसलिए मेरा इरादा यह है कि अगर सरकारके दरबानोंसे इस अन्यायी सरकारसे अलग हो जानेकी कहनेकी जरूरत पड़ी तो सबसे पहले मैं न्यायाधीशों और कार्यकारिणी परिषद् के सदस्योंसे अनुरोध करूँगा और कहूँगा कि आज सारे भारतमें खिलाफत और पंजाबके सवालोंपर किये गये दोहरे अन्यायके प्रति जो विरोध उठ रहा है, उसमें वे भी शामिल हों। दोनों ही सवाल हमारे राष्ट्रीय सम्मानसे सम्बन्धित हैं।
मैं तो यही मानता हूँ कि ये सज्जन कुछ पैसोंके लोभसे इन उच्च पदोंपर नहीं आये हैं, और मेरा ख्याल है कि ख्यातिके लोभसे भी नहीं आये। मेरे खयालसे ये देशकी सेवा करनेके विचारसे ही इन पदोंपर आये। पैसेके लोभसे नहीं आये क्योंकि इन पदोंपर उन्हें जितने पैसे मिलते हैं, उससे अधिक तो वे पहले ही कमा रहे थे। और इसी तरह यह भी नहीं माना जा सकता कि ये ख्यातिके लोभसे आये, क्योंकि देशका सम्मान बेचकर ख्याति नहीं अर्जित की जा सकती। जो एक विचार उन्हें इस समय इन पदोंपर बनाये रख सकता है वह है देशकी सेवाका विचार।
- ↑ सर तेजबहादुर अम्बिकाप्रसाद सप्रू (१८७५-१९४९); राजनयिक और वकील।