जब जनताको सरकारमें विश्वास होता है, जब सरकार जनमतकी प्रतिनिधि होती है तब न्यायाधीश और कार्यपालक अधिकारी, शायद देशकी सेवा कर सकते हैं। लेकिन जब सरकार जनमतकी प्रतिनिधि न हो, जब वह बेईमानी और आतंकको शह दे तो न्यायाधीश और कार्यपालक अधिकारी अपने पदोंपर कायम रहकर उस बेईमानी और आतंकके साधन बन जाते हैं। इसलिए ये उच्च पदाधिकारी कमसे-कम इतना तो कर ही सकते हैं कि वे एक बेईमान और आतंकवादी सरकारके एजेंट बनने से इनकार कर दें।
न्यायाधीशोंके सम्बन्धमें तो यह आपत्ति उठाई जायेगी कि वे राजनीतिसे ऊपर हैं और उन्हें ऊपर रहना चाहिए। लेकिन यह सिद्धान्त वहींतक ठीक माना जा सकता है जहाँतक कुल मिलाकर सरकार जनताके कल्याणकी इच्छुक हो और कम-से-कम बहुमतकी इच्छाका प्रतिनिधित्व करती हो। राजनीतिमें भाग न लेनेका मतलब इतना ही है कि किसीका पक्ष न लें। लेकिन जब पूरे देशका विचार एक हो, इच्छा एक हो और जब पूरे देशको न्याय देनेसे इनकार कर दिया जाये तब वह दलगत राजनीतिका सवाल नहीं रह जाता, राष्ट्रके जीवन-मरणका सवाल बन जाता है। उस हालतमें प्रत्येक नागरिकका यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वह ऐसी सरकारकी सेवा करनेसे इनकार कर दे जिसका व्यवहार ठीक नहीं है और जो राष्ट्रीय इच्छाका अनादर करती है। और तब न्यायाधीशोंके लिए भी, अगर वे अन्ततः देशके ही सेवक हैं तो, राष्ट्रके साथ कदम से कदम मिलाकर चलना आवश्यक है।
अब हमें दूसरी दलीलपर विचार करना है। यह बात न्यायाधीशों और कार्यकारिणी परिषद् के सदस्यों, दोनोंपर समान रूपसे लागू होती है। लोग कहेंगे कि मेरा अनुरोध तो सिर्फ भारतीयोंतक ही लागू हो सकता है, और जिन पदोंको बड़े संघर्षके बाद राष्ट्रीय हकमें प्राप्त किया गया है उन्हें छोड़ने से भला क्या लाभ निकलेगा। कितना अच्छा होता, अगर मैं अंग्रेजोंसे भी उतनी ही कारगर अपील कर सकता जितनी कि भारतीयोंसे। इसलिए अभी मैंने जिस दलीलका जिक्र किया है, उसपर भी विचार करना जरूरी है। यह तो सच है कि इन पदोंको काफी लम्बे संघर्षके बाद हासिल किया गया है, लेकिन ये पद इसलिए उपयोगी नहीं कि इन्हें बहुत संघर्ष करके हासिल किया गया है, बल्कि इसलिए हैं कि इनके बलपर हम देशकी सेवा करना चाहते हैं। जिस क्षण इन पदोंमें यह खूबी नहीं रह जाती, उसी क्षण इनकी उपयोगिता समाप्त हो जाती है, और चाहे ये कितने भी संघर्षके बाद हासिल किये गये हों और इस कारण आरम्भमें कितने ही मूल्यवान रहे हों, इस खूबीके अभावमें उनसे हमारा हित-साधन होनेके बजाय हानि ही होती है, जैसी कि अभी हो रही है।
मैं इन उच्च पदोंपर आसीन अपने इन प्रतिष्ठित देशभाइयोंसे यह भी निवेदन करूँगा कि अगर वे अपने पद छोड़ देंगे तो संघर्ष कम समयमें ही समाप्त हो जायेगा और सर्वसाधारणसे अपने विरोधके प्रदर्शनस्वरूप असहयोग करनेको कहनेमें जिस खतरेकी आशंका है, शायद वह खतरा भी टल जायेगा। अगर खिताबयाफ्ता लोग अपने खिताब छोड़ दें, जिन लोगोंको अवैतनिक पद मिले हुए हैं वे अगर अपने पद छोड़