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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

डरावनी रातमें जनरल डायरके कर्फ्यू आर्डरके बावजूद सैकड़ों मृतकों और दम तोड़ते लोगोंके बीच अपने मृत पतिके सिरको गोदमें लिए बैठी रही थीं। मैं इन महिलाओंको बधाई देता हूँ। मेरी तो यही कामना है कि चरखेका संगीत और यह विचार उन्हें परम तोव दे कि वे राष्ट्रका काम कर रही हैं। मुझे आशा है कि अमृतसरकी अन्य महिलाएँ भी सरलादेवीकी उनके प्रयत्नोंमें सहायता देंगी और वहाँके पुरुष भी इस सम्बन्धमें अपने कर्त्तव्यको पहचानेंगे।

पाठकगण जानते होंगे कि बम्बईमें तो बहुत ही प्रमुख और प्रतिष्ठित परिवारोंकी महिलाओंने भी कताईका काम शुरू कर दिया है। उनमें डा॰ श्रीमती माणेकबाई बहादुरजी भी शामिल हैं, जो यह कला सीख चुकी हैं और अब इसे सेवासदनमें[१]भी शुरू करनेकी कोशिश कर रही हैं। जंजीराकी बेगम साहिबा तथा उनकी बहन श्रीमती अतिया बेगम रहमानने भी यह कला सीखनेका वचन दिया है। मुझे विश्वास है कि ये भली महिलाएँ इस कलाको सीखकर पूरी नियमितताके साथ राष्ट्रके लिए एक निश्चित मात्रामें सूत दिया करेंगी।

मैं जानता हूँ कि कुछ भाई इस महान् कलाके पुनरुद्धारके प्रयत्नपर हँसते हैं। वे कहते हैं कि मिलों, सिलाई मशीनों या टाइपराइटरोंके इस युगमें कोई पागल ही चरखे-जैसे दकियानूसी यन्त्रका पुनरुद्धार करनेमें सफल होनेकी आशा कर सकता है। ये मित्र भूल जाते हैं कि सिलाईकी मशीन आ जानेपर भी सुईका प्रचलन उठ नहीं गया है और न टाइपराइटर आ जानेपर हाथसे लिखनेकी कलाका अन्त हो गया। कोई कारण नहीं कि जैसे होटलोंके साथ-साथ घरेलू रसोई-घर चल रहे हैं वैसे ही सूत कातनेवाली मिलोंके साथ-साथ चरखे क्यों नहीं चल सकते। सच तो यह है कि टाइपराइटर और सिलाईकी मशीनें समाप्त हो सकती हैं, किन्तु सुई और सरकंडेकी कलम बराबर बनी रहेगी। मिलोंकी भी बरबादी हो सकती है, लेकिन चरखा तो हमारी राष्ट्रीय आवश्यकता है। इन आलोचकोंसे मैं कहूँगा कि वे जरा गरीबोंकी झोंपड़ियोंको जाकर देखें, जहाँ उनकी कमाईके स्वल्प साधनोंमें चरखा एक बार फिर बहुत बड़ा योग देने लगा है। वे उन्हीं झोंपड़ियोंमें रहनेवाले लोगों से पूछकर देखें कि क्या चरखेके कारण उनके घरोंमें खुशहाली नहीं आई है।

श्री रेवाशंकर जगजीवनने जो पुरस्कार घोषित किया था, ईश्वरकी कृपासे उसके बहुत फलप्रद होने की आशा है। कुछ समयमें भारतके पास एक नये ढंगका सुन्दर-सुघड़ चरखा होगा——जिसकी खोज बड़े धैर्य और मनोयोगके साथ ढाकाके एक कारीगरने की है। इसके पुर्जे बहुत साधारण-से हैं और बनावट बिलकुल सादी। इसकी कीमत भी कम ही होगी और इसकी मरम्मत आसानीसे की जा सकेगी। इसपर साधारण चरखेकी बजाय अधिक सूत काता जायेगा और पाँच-एक वर्षके बालक-बालिकाएँ भी इसे चला सकते हैं। लेकिन इस नये यन्त्रकी जो सम्भावनाएँ हैं, वे चाहे पूरी हों या नहीं, मेरा यह निश्चित मत है कि हाथसे कताई और बुनाई करनेका पुनः प्रचलन

  1. दयाराम गीदूमल (१८५७-१९३९) द्वारा महिलाओंको कामकाज सिखानेके लिए स्थापित एक समाज-सेवी संस्था।