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श्री एन्ड्र्यूजकी कठिनाई

भारतके आर्थिक और नैतिक पुनरुत्थानमें अधिकसे-अधिक सहायक सिद्ध होगा। लाखोंकरोड़ों खेतिहर लोगोंके लिए कोई सीधा-सादा सहायक धन्धा होना जरूरी है। कताई वर्षों पूर्व भारतका गृह-उद्योग थी और अगर इन लाखों-करोड़ों लोगोंको भुखमरीसे बचाना हो तो उन्हें एक बार फिर अपने घरोंमें कताईका काम शुरू करनेकी सुविधा देना आवश्यक है और प्रत्येक गाँवके लिए अपना बुनकर होना जरूरी है।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २१-७-१९२०

 

४७. श्री एन्ड्र्यूजकी कठिनाई

श्री एन्ड्र्यूजको भारतसे जितना प्रेम है, उसकी बराबरी उनका इंग्लैंड- प्रेम ही कर सकता है। ईश्वरकी सेवा अर्थात् भारतके माध्यमसे मानवताकी सेवा ही उनके जीवनका व्रत है। उन्होंने खिलाफत आन्दोलनपर 'बॉम्बे क्रॉनिकल' में कुछ बहुत महत्त्वपूर्ण लेख लिखे हैं। उनमें उन्होंने इंग्लैंड, फ्रांस या इटली किसीको नहीं बख्शा है। उन्होंने दिखाया है कि किस तरह टर्कीके साथ घोर अन्याय किया गया है और किस तरह [ब्रिटिश] प्रधान मन्त्रीका वचन तोड़ा गया है। अपने अन्तिम लेखमें उन्होंने सुलतानके नाम लिखे श्री मुहम्मद अलीके पत्रपर विचार किया है और उसमें वे इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि श्री मुहम्मद अलीने इसमें जो माँगें बताई हैं उनका वाइसरायके पास भेजे गये खिलाफत सम्बन्धी आखिरी प्रार्थनापत्रमें उल्लिखित माँगोंसे मेल नहीं बैठता। श्री एन्ड्र्यूज इस प्रार्थनापत्रमें की गई माँगोंसे पूरी तरह सहमत हैं।

मैंने श्री एन्ड्र्यूजके साथ इस सवालपर यथासम्भव पूरे विस्तारसे विचार-विमर्श किया है। उन्होंने मुझसे कहा है कि मैं अपनी स्थिति जितनी स्पष्ट कर चुका हूँ, उससे अधिक पूर्णताके साथ उसे एक बार फिर सार्वजनिक रूप से स्पष्ट करूँ। उन्होंने इस विषयको चर्चा करनेका जो आमन्त्रण दिया है, उसके पीछे उनका एकमात्र ध्येय यही है कि जिस उद्देश्यको वे यथार्थतः न्यायसम्मत मानते हैं उसे शक्ति प्रदान कर सकें और उसके पक्ष में यूरोपके सबसे प्रभावशाली जनमतको खड़ा कर सकें, ताकि मित्र देशों और विशेष रूपसे इंग्लैंड को शर्मके मारे ही इस सन्धिकी शर्तोंमें परिवर्तन करना पड़े।

मैं श्री एन्ड्र्यूज के आमन्त्रणको सहर्ष स्वीकार करता हूँ। सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहूँगा कि ऐसा कोई भी धार्मिक सिद्धान्त, जो तर्कसंगत और नीतिसम्मत न हो, मुझे कतई स्वीकार नहीं। मैं असंगत धार्मिक भावनाको भी तभी सहन करता हूँ जब वह अनैतिक न हो। खिलाफत-सम्बन्धी माँगोंके पीछे मुस्लिम जगत्‌की धार्मिक भावना तो है ही, साथ ही उन माँगोंको मैं न्यायसम्मत और तर्कसंगत भी मानता हूँ। इस तरह इन माँगोंको और भी बल मिलता है।

मेरी रायमें श्री मुहम्मद अलीने माँगोंका जो ब्योरा पेश किया है, उसमें कुछ भी आपत्तिजनक नहीं है। इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने कूटनीतिक भाषाका प्रयोग