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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


मताधिकारका प्रश्न शीघ्र ही अत्यन्त उग्र चर्चाका विषय बन जायेगा। मतदाताओं का विभाजन करना अथवा भारतीयोंको नामजदगीके द्वारा नियुक्त करना घातक होगा। मतदाताओंके लिए जो भी योग्यता निर्धारितकी जाये वह सबके लिए समान होनी चाहिए और उसके आधारपर एक ही निर्वाचक सूची बननी चाहिए। जैसा कि श्री एन्ड्र्यूज ने सभाको ध्यान दिलाया यह सिद्धान्त केप [उपनिवेश] में सफल हुआ है।

पूर्वी आफ्रिकासे सम्बन्धित प्रस्तावके दूसरे भागमें बताया गया है कि पूर्वी आफ्रिकाके उस प्रदेशमें जहाँ जर्मनीका शासन था हमारे देशवासियोंकी दशा क्या है। वहाँ भारतीय सैनिक [साम्राज्यकी ओर से] लड़े और अब भारतीयोंकी दशा वहाँ जर्मनीके शासन के समय से बदतर है। हिज हाइनेस आगाखाँने सुझाव दिया था कि जर्मन पूर्वी आफ्रिकाकी शासन-व्यवस्था भारतवर्ष द्वारा होनी चाहिए। सर थियोडोर मौरीसन [दक्षिण आफ्रिकाके] सारे भारतीयोंको जर्मन पूर्वी आफ्रिकामें ही भर देना चाहते थे। नतीजा यह हुआ कि दोनों सुझाव गिर गये और जिसका अन्देशा था वैसा ही हुआ। अंग्रेज कूटनीतिज्ञोंके लोभकी विजय हुई है और वे भारतीयोंको निकाल बाहर करनेमें प्रयत्नशील हैं। भारत सरकार किस चीजकी रक्षा करेगी? क्या ऐसा करनेकी उसकी इच्छा है? क्या स्वयं भारतका शोषण नहीं किया जा रहा है? श्री जहाँगीर पेटिटने स्वर्गीय गोखलेके इन शब्दोंकी याद दिलाई कि जबतक हम अपने घरको सुव्यवस्थित न कर लें तबतक हमें समुद्रपार रहनेवाले देशवासियोंके सम्मानकी रक्षाके सम्बन्धमें पूर्ण रूपसे सन्तोषदायक हलकी आशा न करनी चाहिए। जब हम स्वयं अपने देशमें दासोंकी तरह हैं तब हम बाहर उससे बेहतर दर्जा कैसे पा सकते हैं? श्री पेटिट योजनाबद्ध और प्रचण्ड प्रतिकारके इच्छुक हैं। मेरे विचारमें प्रतिकार दोनों ओर मार करनेवाला शस्त्र है। यदि इससे उस पक्षको, जिसके विरुद्ध शस्त्र इस्तेमाल किया जाता है, क्षति पहुँचती है तो वह चलानेवालेको भी क्षति पहुँचाये बिना नहीं रहता। इसके सिवा बदला लेगा कौन? अंग्रेज सरकारसे यह आशा रखना कि वह अपने ही लोगोंके विरुद्ध कारगर ढंगसे बदला लेगी, बहुत ज्यादा होगा। वे विरोध प्रकट करेंगे, बहस करेंगे, समझायेंगे, बुझायेंगे, एतराज करेंगे। लेकिन अपने ही उपनिवेशोंके विरुद्ध युद्ध नहीं ठानेंगे। और यदि प्रतिकारसे काम नहीं चलता तो उसका तार्किक परिणाम युद्धके सिवा कुछ और हो ही नहीं सकता।

हमें वास्तविकताका सामना साहसके साथ करना चाहिए। समस्या अंग्रेजों तथा हमारे लिए समान रूपसे कठिन है। उपनिवेशोंमें अंग्रेजों और भारतीयोंकी एक राय नहीं है। अंग्रेज लोग हमें उन स्थानोंमें नहीं रहने देना चाहते जो स्वयं उनके रहने योग्य हैं। उनकी संस्कृति हमारी संस्कृति से भिन्न है। दोनों जातियाँ एक-दूसरे से तबतक नहीं घुल-मिल सकतीं जबतक उनमें एक दूसरेके प्रति सम्मानको भावना न हो। अंग्रेज अपनेको शासन करनेवाली जातिका समझता है। भारतीय यह मानना चाहता है कि वह शासितोंकी जातिका नहीं है; और इसी प्रयत्नमें मानो यह स्वीकार कर लेता है कि वह शासितोंके वर्गका है। इसलिए पहले हमें अपने देशमें समानताकी स्थिति