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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मान लिया गया है कि लोगोंमें बुराईपर काबू रखनेकी क्षमता है। इसलिए अगर लोगोंमें उपद्रवकी कोई ऐसी प्रवृत्ति पाई गई, जिसपर वे काबू नहीं रख सकते तो फिर जहाँतक मेरी बात है, मैं उस प्रवृत्तिपर काबू करनेके प्रयत्नमें सरकारकी सहायता करूँगा। अगर उपद्रव हुए तो मेरे सामने सवाल होगा दो बुराइयोंके बीच चुनाव करनका, और यद्यपि मैं वर्तमान सरकारको बुरा मानता हूँ फिर भी फिलहाल उस उपद्रवको रोकनेमें मैं बिना किसी हिचकके सरकारको मदद दूँगा। लेकिन मुझे जनतामें विश्वास है। मुझे विश्वास है, लोग जानते हैं कि इस उद्देश्यको अहिंसक तरीकोंसे ही सिद्ध किया जा सकता है। इसी बातको अगर हम बहुत बुरे ढंगसे कहना चाहें तो कहेंगे कि यदि लोगोंमें इच्छा हो तो भी उनमें इतनी शक्ति नहीं है कि वे पशुबलके सहारे यूरोपके उन अन्यायी देशोंका विरोध कर सकें, जिन्होंने अपनी सफलताके मदमें चूर होकर न्यायकी सारी मान्यताओंको ताकपर रख दिया और यूरोपके एकमात्र इस्लामी राज्यके साथ ऐसा क्रूर व्यवहार किया।

बेजोड़ हथियार

श्री गांधीने कहा, आप लोगोंके हाथमें असहयोग रूपी बेजोड़ और जबरदस्त हथियार है। जो सरकार झूठ और कपटका सहारा लेकर अन्यायका समर्थन करे, उसके साथ सहयोग करना धार्मिक दुर्बलताका लक्षण है। इसलिए जबतक सरकार अपने-आपको अन्याय और असत्यके दोषोंसे मुक्त नहीं कर लेती तबतक समाजमें व्यवस्था कायम रखनेकी अपनी योग्यताको देखते हुए जहाँतक सम्भव हो वहाँतक सरकारको किसी भी प्रकारकी सहायता न देना आपका कर्त्तव्य है। अतएव असहयोगके प्रथम चरणमें ऐसी व्यवस्था की गई है जिसमें सार्वजनिक शान्ति-सुव्यवस्थाके लिए कमसे-कम खतरा हो और इस आन्दोलनमें शामिल होनेवाले लोगोंको यथासम्भव कमसे-कम बलिदान करना पड़े। और अगर आप मानते हों कि आप एक बुरी सरकारको कोई सहायता नहीं दे सकते और न उसका अनुग्रह ही स्वीकार कर सकते हैं तो स्वभावतः आपको सम्मानसूचक सभी खिताब छोड़ देने चाहिए, क्योंकि उन खिताबोंपर अब कोई गर्व करनेकी बात नहीं रह गई है। वकीलोंको, जो वास्तवमें न्यायालयोंके अवैतनिक अधिकारी ही हैं, न्यायालयोंकी कार्यवाही में मदद देना बन्द कर देना चाहिए, क्योंकि ये न्यायालय एक अन्यायी सरकारकी प्रतिष्ठाके पोषक हैं। लोगोंको आपसी झगड़े पंच-फैसलेसे सुलझाने चाहिए। इसी तरह माता-पिताओंको अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलोंसे निकाल लेना चाहिए और उन्हें समस्त सरकारी नियन्त्रणोंसे मुक्त एक राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धतिका विकास करना चाहिए या फिर निजी तौरपर शिक्षणकी व्यवस्था करनी चाहिए। हो सकता है यह उद्धत सरकार, जिसे अपने पशुबलका बहुत गुमान है, लोगोंकी इन कार्रवाइयोंपर हँसे——विशेषकर इस कारण कि न्यायालयों और स्कूलोंको जनताकी सहायता करनेवाली संस्थाएँ माना जाता है, लेकिन मुझे इस बातमें तनिक भी सन्देह नहीं कि जिस सरकारने शक्तिके मदमें चूर होकर