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७३. पत्र : वाइसरायको[१]

[१ अगस्त, १९२०][२]

महोदय,

दक्षिण आफ्रिकामें मेरी मानवीय सेवाओंके लिए आपके पूर्ववर्ती वाइसराय द्वारा दिया गया कैंसरे-हिन्द स्वर्ण पदक[३]लौटाते हुए मुझे दुःख होता है, तथापि मैं इसे लौटा रहा हूँ। साथ ही जुलू युद्ध-पदक जो १९०६ में भारतीय स्वयंसेवक सहायता दलके अधिकारीकी हैसियत से दक्षिण आफ्रिकामें मेरी युद्ध-सेवाओं के लिए प्रदान किया गया था और बोअर युद्ध पदक जो भारतीय डोलीवाहक दलके सहायक-निरी- क्षक्की हैसियत से १८९९ में बोअर युद्धके दौरान मेरी सेवाओंके लिए दिया गया था, भी लौटा रहा हूँ। खिलाफत आन्दोलनके सिलसिलेमें आजसे प्रारम्भ असहयोगकी योजनापर अमल करनेके सन्दर्भमें मैं इन पदकोंको वापस कर रहा हूँ। इन पदकोंको मैंने अपने सम्मानकी तरह आँका है; परन्तु फिर भी जबतक मेरे मुसलमान देशभाई अपनी धार्मिक भावनाओं के प्रति किये गये अन्यायको झेल रहे हैं मैं इन्हें शान्तिपूर्वक धारण नहीं कर सकता। पिछले महीने जो घटनाएँ हुई हैं उनसे मेरी यह राय और भी दृढ़ हो गई है कि साम्राज्य सरकारने खिलाफतके मामलेमें अधर्म, अनैतिकता और अन्यायसे काम किया और फिर वह अपनी अनैतिकताकी रक्षाके लिए एकके बाद-एक गलत काम करती ही चली गई। मैं ऐसी सरकारके प्रति सम्मान और स्नेह नहीं बनाये रख सकता। साम्राज्य सरकार और आपकी सरकारका पंजाबके प्रश्नपर जो रुख रहा है उससे मुझे और भी गहरा असन्तोष हुआ है। आप जानते ही हैं कि मुझे कांग्रेस द्वारा नियुक्त एक आयुक्तके रूपमें अप्रैल १९१९ के दौरान पंजाबमें हुए उपद्रवोंके कारणोंकी जाँच करनेका सौभाग्य मिला था उसके आधारपर मेरा सोचा-समझा मन्तव्य यह बना है कि सर माइकेल ओ'डायर पंजाबके लेफ्टिनेंट गवर्नर पदके लिए सर्वथा अयोग्य व्यक्ति हैं और उनकी नीति ही अमृतसरमें भीड़को उत्तेजित करनेका मुख्य कारण थी। निःसन्देह भीड़ द्वारा की गई ज्यादतियाँ भी अक्षम्य थीं। आगजनी, पाँच बेगुनाह अंग्रेजोंकी हत्या और कुमारी शेरवुडपर[४]कायरतापूर्ण हमला, सभी बातें बहुत ही निन्दनीय और निष्कारण थीं, परन्तु जनरल डायर, कर्नल फॅन्क जॉन्सन, कर्नल

  1. यह ४-८-१९२० के यंग इंडिया में भी "रिननसीऐशन ऑफ मेडल्स" (पदक-त्याग) शीर्षकसे प्रकाशित हुआ था।
  2. इस तारीखको खिलाफत आन्दोलनके सिलसिलेमें असहयोग प्रारम्भ होनेका उल्लेख है, तदनुसार यह तारीख मान ली गई है।
  3. १९१५ में लॉर्ड हार्डिगने प्रदान किया था।
  4. एक अंग्रेज महिला जो अमृतसरके मिशन स्कूलमें काम करती थी। १० अप्रैल, १९१९ को वह साइकिलपर कहीं जा रही थी, तभी उसपर नृशंस हमला किया गया था और एक भारतीयने उसकी प्राण-रक्षा की थी।