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७४. पत्र : दयालजीको

१ अगस्त, १९२०

भाईश्री दयालजी,

तुम्हारा पत्र मिला। तीन दिनकी हड़तालका विचार[१]मुझे तो जरा भी पसन्द नहीं। एक दिनकी हड़ताल मैं समझ सकता हूँ। यदि हम सचमुच अपनी भक्तिभावनाका परिचय देना चाहते हों तो मैं तो कुछ व्यावहारिक कार्य पसन्द करूँगा। इसलिए हमें उनके गुणोंको ढूँढ निकालना चाहिए और उन्हें अपने जीवनमें उतारनेका प्रयत्न करना चाहिए। वे अत्यन्त सादे थे, उनकी स्मृतिको बनाये रखनेके लिए हम सादगीका व्रत लें। सब लोग लोकमान्यके नामसे किसी ऐसी वस्तुका त्याग करें जो उन्हें अत्यन्त प्रिय हो। उन्हें बहादुरी पसन्द थी सो हमें हर तरह के भयको छोड़ बहादुर बननेका प्रयत्न करना चाहिए। वे चाहते थे कि इस देशकी प्रजा शरीरसे बलवान् हो; हम सबको उनका स्मरण कर सबल बननेका यत्न करना चाहिए। उन्हें देश प्राणोंके समान प्यारा था, हमें भी उनका स्मरण कर अपने प्रति प्रेमको छोड़ दिन-प्रतिदिन देशके प्रति शुद्ध प्रेमका विकास करना चाहिए। उन्हें विद्वत्ता प्रिय थी। मराठी और संस्कृतपर बहुत अधिकार था। हमें भी अगर हम अपनी-अपनी मातृभाषाको कम चाहते हों और उसका हमारा ज्ञान कम हो तो उसे बढ़ाना चाहिए। हम मातृभाषा और संस्कृतका ज्ञान प्राप्त करें। इस तरहकी उनकी अन्य अनेक विभूतियोंका उल्लेख किया जा सकता है। उनमें से जो-जो हमें अच्छी लगें उनका विकास कर उन्हें [लोकमान्यको] सदैव जीवित रखें। और अन्तमें जिनसे कुछ भी न बन पड़े वे देशहित के लिए एक पैसेसे लेकर चाहे जितना धन दें।

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ५

 
  1. देखिए "लोकमान्यका स्वर्गवास", ८-८-१९२० ।