भूल होगी। इसके विपरीत, ऐसे व्यक्तिको तो उस नीति या कार्यक्रमके अनुसार काम करके उसकी कार्य-साधकता सिद्ध कर देनी चाहिए ताकि सम्पूर्ण राष्ट्र उसे स्वीकार कर ले।
कांग्रेसके प्रति मेरी वफादारीका तकाजा है कि अगर उसकी कोई नीति मेरी अन्तरात्माके विरुद्ध न पड़ती हो तो मैं उस नीतिका पालन करूँ। अगर मैं अल्पमतमें होऊँ तो यह हो सकता है कि मैं अपनी नीतिका पालन करूँ, लेकिन कांग्रेसके नामपर न करूँ। इसलिए किसी प्रश्न-विशेषपर कांग्रेसके निर्णयका मतलब यह नहीं है कि कोई कांग्रेसी उस निर्णयके विरुद्ध काम नहीं कर सकता। उसका मतलब तो इतना ही है कि अगर वह उसके विरुद्ध काम करता है तो अपनी जिम्मेदारीपर और यह जानते हुए करता है कि कांग्रेस उसके साथ नहीं है।
हर कांग्रेसीको, हर सार्वजनिक संस्थाको यह अधिकार है——और कभी-कभी तो यह उसका कर्त्तव्य भी हो जाता है——कि वह अपना मत व्यक्त करे, बल्कि उसके अनुसार काम भी करे, और कांग्रेसके लिए उसी निर्णयपर पहुँचनेका मार्ग प्रशस्त करे। दरअसल राष्ट्रकी सेवा करनेका यही सबसे अच्छा तरीका है। सुविचारित और सुचिन्तित नीतियोंका सूत्रपात करके हम कांग्रेस-जैसी विचार-विमर्श करनेवाली एक बड़ी संस्थाके लिए आधार-सामग्री प्रस्तुत करते हैं ताकि उसके सहारे वह सही मत स्थिर कर सके। कांग्रेस किसी भी प्रश्नपर राष्ट्रके मतको तबतक कोई निश्चित और सही अभिव्यक्ति नहीं दे सकती जबतक कि हममें से कमसे-कम कुछ लोगोंने इस सम्बन्धमें क्या करना है, इस बातपर पहलेसे ही कुछ दृढ़ विचार न बना रखे हों। अगर सभी लोग अपना मत देना बन्द कर देंगे तो आखिरकार कांग्रेसको ही अनिवार्यतः अपना मत देना बन्द करना पड़ेगा।
किसी भी संस्थामें सदा तीन श्रेणियोंके लोग आते हैं: एक तो वे जिनके विचार अमुक नीतिके पक्षमें हैं, दूसरे वे जिनकी राय उस नीतिपर सुनिश्चित किन्तु विपक्षमें होती है और तीसरे वे जिनके इस सम्बन्धमें कोई निश्चित विचार ही नहीं हैं। कांग्रेस इसी तीसरी और बड़ी श्रेणीके लोगोंके एवजमें निर्णय लेती है। असहयोगके सम्बन्ध मैं एक निश्चित विचार रखता हूँ। मेरा खयाल है कि अगर हम सुधारोंका कुछ उपयोग करना चाहते हों तो हमें आजके दुर्गन्धपूर्ण, अस्वच्छ और पतनकारी वातावरणके बदले शुद्ध, स्वच्छ और ऊपर उठानेवाला वातावरण उत्पन्न करना होगा। मेरे विचारसे हमारा पहला कर्त्तव्य खिलाफत और पंजाबके सम्बन्धमें साम्राज्य सरकारसे न्याय प्राप्त करना है। इन दोनों ही मामलोंमें झूठ और उद्धतताके सहारे अन्यायका पोषण किया जा रहा है। इसलिए मैं समझता हूँ कि इस राष्ट्रका पहला कर्त्तव्य सरकारकी गन्दगी दूर करना है; उसके बाद ही दोनोंके बीच पारस्परिक सहयोगकी बात उठ सकती है। विरोध-अवरोधकी नीति भी तो तभी सम्भव है, जब एक-दूसरे के प्रति सम्मान-भाव और विश्वास हो। इस समय तो शासकवर्गको हमारा या हमारी भावनाओंका कोई खयाल नहीं है, और न हमें ही उसमें कोई विश्वास है। इन परिस्थितियोंमें सहयोग एक अपराध है। ऐसे प्रबल विचार रखते हुए मैं कांग्रेस