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गोरक्षा

तरहकी जोर-जबरदस्ती की तो जवाबमें वे भी वैसा करेंगे और इस तरह कटुता बढ़ेगी। ध्यान रहे कि हम जोर-जबरदस्ती करके मुसलमानोंको या किसीकों भी अपनी धार्मिक अथवा अन्य प्रकारकी भावनाका आदर करनेको मजबूर नहीं कर सकते। वास्तवमें, हम उनके भीतर मैत्री-भाव पैदा करके ही ऐसा कर सकते हैं।

यही कारण है कि मैंने खिलाफतके सवालपर कोई सौदेबाजी करनेसे इनकार कर दिया है, और मेरा दृढ़ विश्वास है कि ऐसा करके मैंने बुद्धिमानी ही की है। मैं अपनी गिनती कट्टरसे-कट्टर हिन्दुओंमें करता हूँ। गायको मुसलमानोंके छुरेसे बचानेके लिए मैं भी उतना ही उत्सुक हूँ जितना कोई अन्य हिन्दू। लेकिन बिलकुल इसी कारणसे मैं मुसलमानोंकी खिलाफत सम्बन्धी माँगोंका समर्थन करनेके पीछे यह शर्त लगानेसे भी इनकार करता हूँ कि वे गोरक्षामें हमारा साथ दें। मुसलमान हमारे पड़ोसी, हमारे भाई हैं। वे लोग कष्ट में है। उनकी शिकायतें उचित हैं और मेरा यह परम कर्त्तव्य है कि मैं अपनी धन-सम्पत्ति और प्राणोंकी बाजी लगाकर भी उनकी शिकायतें दूर करवानेमें हर उचित तरीकेसे उनकी सहायता करूँ। इसी तरीकेसे मैं मुसलमानोंकी स्थायी मैत्री प्राप्त कर सकता हूँ। मैं मानव-स्वभावकी अच्छाईमें सन्देह नहीं कर सकता। हर उदात्त और मैत्रीपूर्ण कार्यका अनुकूल प्रभाव उसपर होगा बल्कि होता ही है। अगर हम शर्तोंके साथ सहायता देते हैं तो उस सहायतामें कोई उदारता नहीं रह जायेगी। अगर हम उन्हें बिना किसी शर्तके सहायता देते हैं तो उसका परिणाम गोरक्षाके रूपमें प्रकट होना निश्चित है। लेकिन अगर उसका कोई विपरीत परिणाम निकले तब भी मेरे विचारोंमें कोई अन्तर नहीं आयेगा। प्रतिदानकी कोई अपेक्षा न रखते हुए स्नेह और बलिदानकी भावना रखना ही सच्ची मित्रताकी कसौटी है।

लेकिन हिन्दुओंमें कुछ अधैर्यकी भावना दिखाई देती है। गोरक्षाके लिए हम इतने अधीर हो रहे हैं कि इस उद्देश्यसे हम नगरपालिकाओंसे कानून बनवानेकी कोशिश करते हैं और मुसलमानोंकी सभाओंमें इस सम्बन्धमें प्रस्ताव पास करानेका प्रयत्न करते रहते हैं। मैं अपने हिन्दू देशभाइयोंसे धीरज रखनेको कहूँगा। स्वयं हमारे मुसलमान भाई इस मामलेमें बहुत सुन्दर ढंगसे काम कर रहे हैं। मैं पाठकोंको मौलाना अब्दुल बारीकी[१]उस घोषणाका स्मरण दिलाता हूँ जिसमें उन्होंने कहा है कि एक सच्चे मुसलमानके नाते वे जबतक अपने-आपको अपने अनुगामियोंसे गोरक्षाका अनुरोध करनेकी स्थिति में नहीं पाते तबतक हिन्दुओं द्वारा दी गई कोई सहायता स्वीकार नहीं कर सकते। और वे अपनी बातके बिलकुल पक्के निकले। तबसे वे इस बातके लिए अनुकूल वातावरण तैयार करनेका अथक प्रयास करते रहे हैं कि लोग गोरक्षाके सिद्धान्तको मानव-धर्म और उपयोगिताकी दृष्टिसे स्वीकार कर लें। हकीम अजमल खाँने[२]

१८-९

  1. लखनऊ के एक राष्ट्रवादी मुसलमान, जिन्होंने खिलाफत आन्दोलनमें भाग लिया और अपने अनुगामियोंसे गोहत्या न करनेका अनुरोध किया।
  2. १८६५–१९२७; प्रसिद्ध हकीम और राजनीतिज्ञ, जिन्होंने खिलाफत आन्दोलनमें प्रमुख भाग लिया; १९२१ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके अध्यक्ष।