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८६. लोकमान्यका स्वर्गवास

लोकमान्य अद्वितीय थे। इस देशके लोगोंने यह सिद्ध कर दिखाया है कि उन्होंने तिलक महाराजको जो पदवी प्रदान की थी वह पदवी सरकार द्वारा दी गई पदवियोंसे लाखों गुना अधिक मूल्यवान थी। पूरी बम्बई लोकमान्यकी शवयात्रामें सम्मिलित होनेके लिए निकल पड़ी थी यदि ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी।

उनके अन्तिम दिनोंमें दिखाई पड़नेवाले दृश्य अविस्मरणीय हैं। उनके प्रति लोगोंका अगाध प्रेम अवर्णनीय है।

फ्रांसमें कहावत है: "राजा दिवंगत हुए, राजा चिरंजीवी हों।" यहीं उक्ति इंग्लैंड आदि सब देशोंमें प्रचलित है तथा राजाकी मृत्यु होनेपर वे लोग ऐसा ही कहते हैं। भावार्थ यह है कि राजा कभी नहीं मरता। राजतन्त्र एक क्षणके लिए भी नहीं रुकता।

बम्बईके विशाल जन-सागरने भी यह सिद्ध कर दिखाया है कि तिलक महाराज कभी मरनेवाले नहीं हैं, मरे नहीं हैं; वे जीवित हैं और सदैव जीवित रहेंगे। उनके सगे-सम्बन्धी भले ही दुःखी हुए हों, उनकी आँखोंसे मोतीकी तरह आँसू टपके हों किन्तु गाँवकी अपार जनता रोते-बिसूरते नहीं आई थी। वह तो मानो कोई उत्सव मनाने आई थी। गाँवके लोगोंके गाजे-बाजे तथा भजनोंने लोगोंको इस बातका स्मरण कराया कि लोकमान्य मरे नहीं हैं। 'लोकमान्य तिलक महाराजकी जय' के घोषसे चारों दिशाएँ प्रतिध्वनित हो उठीं और लोगोंको इस बातका ध्यान ही न रहा कि तिलक महाराजके नश्वर शरीरका दाह-संस्कार करना है। इस तरह जनताने अपना अन्तिम और सही निर्णय दिया; डाक्टरोंके 'बुलेटिनों' को झूठा साबित कर दिया।

शनिवारकी रातको जब मुझे उनकी मृत्युका समाचार मिला था उस समय मेरे मनमें भी कुछ खलबली मची; लेकिन जनताका यह जयघोष सुनकर मन शान्त हो गया। मैं समझ गया कि तिलक महाराज जीवित हैं; क्षणभंगुर देहका पात हो गया है लेकिन उनकी अजर-अमर आत्मा तो लाखों हृदयोंमें निवास करती है।

एक अंग्रेज लेखकने कहा कि दो सच्चे मित्र जबतक जीवित रहते हैं तबतक कुछ नहीं तो देहसे भिन्न ही रहते हैं। परस्पर एक-दूसरेमें थोड़ा भेद भी देखते हैं। लेकिन यदि वे सच्चे मित्र हैं तो उनमें से जो मर जाता है वह भेदकी दीवारको तोड़ देता है। मृत होकर भी वह जीवित मित्रके शरीरमें जीता है। जीवित मित्रके लिए वह कभी मरता नहीं है। उसी तरह तिलक महाराज आज लाखों व्यक्तियों में जीवित हैं। शनिवारतक तो वे अपने शरीरमें ही विशेष रूप से जीवित थे।

ऐसी मृत्यु इस युगमें आजतक किसी लोकनायकको नसीब नहीं हुई है। दादाभाई[१]गये, फीरोजशाह[२]गये, गोखले भी सिधार गये। सबकी अर्थियोंके पीछे सहस्त्रों

  1. दादाभाई नौरोजी (१८२५-१९१७); प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ तथा देशभक्त; "भारतके पितामह" नामसे प्रसिद्ध। १८८६, १८९३ और १९०६ के कांग्रेस अधिवेशनोंके अध्यक्ष।
  2. फीरोजशाह मेहता (१८४५-१९१५); भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके संस्थापकोंमें से एक; १८९० तथा १९०९ में दो बार कांग्रेसके अध्यक्ष निर्वाचित।