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लोकमान्यका स्वर्गवास

लोग श्मशान-भूमितक गये थे लेकिन तिलक महाराजके समय भीड़का कोई पार नहीं था। उनके पीछे तो सारा जगत् गया। रविवारके दिन बम्बईके लोग पागल हो उठे थे।

यह कैसा चमत्कार है? जगत् में चमत्कार जैसी कोई वस्तु नहीं है; अथवा कह सकते हैं, जगत् स्वयं एक चमत्कृति है। कारणके बिना कार्य नहीं होता, इस सिद्धान्तमें कोई अपवाद नहीं हो सकता। लोकमान्यके हृदयमें भारतके प्रति अपार प्रेम था इसीसे लोगोंके मनमें भी उनके प्रति अत्यन्त स्नेह था। स्वराज्यके मन्त्रका जिस हदतक लोकमान्यने जाप किया उस हदतक किसी और व्यक्तिने नहीं किया। और जिस समय लोगोंने अन्तःकरणसे इस बातका अनुभव किया कि भारतको स्वराज्यके योग्य होनेमें अभी थोड़ा समय लगेगा उस समय लोकमान्यने अन्तःकरणपूर्वक यह माना कि भारत आज ही स्वराज्यके लिए तैयार है। उनकी इस मान्यताने लोगोंके दिलोंको जीत लिया। लोकमान्य यह मानकर ही चुप नहीं बैठे, वे जीवन-भर अपनी इस मान्यताके अनुसार कार्य करते रहे और उससे जनतामें एक नवीन उत्साहका स्फुरण हुआ। स्वराज्य प्राप्त करनेकी उनकी अधीरता संक्रामक थी। उन्होंने लोगोंको भी अधीर कर दिया और लोगोंमें जैसे-जैसे यह अधैर्य बढ़ता गया वैसे-वैसे वे उनकी ओर खिंचते गये।

उनके ऊपर कितनी ही आपदाएँ आईं, कितने ही दुःख आये लेकिन उन्होंने अपने इस मन्त्रको नहीं छोड़ा। इस तरह वे कठिन परीक्षामें उत्तीर्ण हुए, जनताके मनमें उनके प्रति अटूट विश्वासभावनाने जन्म लिया और उनके वचनको कानून माना जाने लगा।

ऐसा महान् जीवन, देह नष्ट होनेसे क्षीण नहीं हो जाता बल्कि देह नष्ट होनेके बाद उसकी शुरुआत होती है।

तिलक महाराजके लिए कुछ विशेष किया जाना चाहिए——ऐसा एक मित्रने मुझे लिखा है और मेरी सलाह माँगी है। साथ ही उन्होंने यह भी सुझाव दिया है कि यदि उनकी स्मृतिमें तीन दिनतक हड़ताल की जाये तो क्या यह ठीक न होगा? उन्हें मैंने जो उत्तर दिया है उसे यहाँ मैं विस्तारसे लिख रहा हूँ।[१]

जिनकी हम आराधना करते हों, उनके सद्गुणोंका अनुसरण करनेमें ही सच्ची आराधना है। परिणामतः मुझे तो हड़ताल करनेकी अपेक्षा कोई रचनात्मक कार्य करनेकी बात अधिक प्रिय लगती है। उस दिन हड़ताल करना, उपवास करना आदि निःसन्देह आवश्यक हैं, लेकिन विशेषता तो अनुकरणमें ही होनी चाहिए। वे अत्यन्त सादे थे; उनकी स्मृतिमें हम सादेपनका संकल्प करें, और असुविधा उठाकर भी वस्तुओंका त्याग करें। वे वीर थे; हम उनकी निर्भयताका अनुकरण करते हुए मन जिस बातके लिए गवाही दे, वही करें और अपने उद्देश्यसे कभी पीछे न हटें। वे विचारशील थे; हम भी कुछ बोलते अथवा करते समय खूब विचार करें और तब कुछ बोलें अथवा करें। वे विद्वान् थे उन्हें अपनी मातृभाषा तथा संस्कृतपर आश्चर्यजनक रूपसे अधिकार था; हम उनके जैसा विद्वान् बननेका आग्रह रखें। अपने क्रियाकलापोंमें विदेशी

  1. देखिए "पत्र : दयालजीको", १-८-१९२०।