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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हैं। रौलट अधिनियमका विरोध करनेसे पूर्व किसीने कांग्रेसका मत जाननेकी प्रतीक्षा नहीं की।

पंडितजीने अत्यन्त प्रेमपूर्वक मुझे जो सलाह दी है उसका अर्थ इतना ही है कि उन्होंने असहकारके बारेमें कोई दृढ़ राय स्थिर नहीं की है। उनकी इस सलाहको मैं शिरोधार्य नहीं कर सकता, इसका अर्थ यह है कि मैं दृढ़तापूर्वक इस अन्तिम निश्चयपर पहुँच गया हूँ कि असहकार- आन्दोलन करनेमें हम जितना विलम्ब करते हैं उतना ही हमें पाप लगता है। जबतक मुझे सरकारकी न्यायबुद्धिके सम्बन्धमें तनिक भी श्रद्धा थी तबतक मैं उसके साथ सहकार करता रहा और जनताको भी वैसी ही सलाह देता था। अमृतसर कांग्रेसमें मैंने अत्यन्त दृढ़तापूर्वक सरकारसे सहकार करनेकी सलाह दी थी, क्योंकि मैं अन्तःकरणपूर्वक मानता था कि पंजाबको तथा मुसलमान भाइयोंको न्याय मिलेगा। मेरी यह मान्यता गलत साबित हुई इसीसे मैं असहकार करने लगा। सरकारकी प्रत्येक मेहरबानी, उसके सब सुधार मेरे लिए विषैले दूधके समान त्याज्य हो गये हैं। यही कारण है कि मैं अकेला भी रह गया तो भी पुकार-पुकारकर यही कहूँगा कि हमें सरकारकी विधान परिषदोंमें नहीं जाना चाहिए।

कांग्रेस के प्रतिनिधि तीन तरह के होते हैं। एक किसी प्रश्नके सम्बन्धमें अनुकूल एवं स्पष्ट मतवाले, दूसरे उसके सम्बन्धमें प्रतिकूल स्पष्ट मतवाले तथा तीसरे अस्पष्ट मतवाले। पहले पक्षके लोगोंको कांग्रेस अधिवेशनमें जानेवाले अस्पष्ट मतवाले प्रतिनिधियोंपर प्रभाव डालने का प्रयत्न करना चाहिए। यह उनका कर्त्तव्य है। और आचरण करनेसे अधिक प्रभावशाली बात क्या हो सकती है? इसलिए मेरी बुद्धि तो यही सुझाव देती है कि जो असहकारमें भारतका कल्याण देखते हैं, जो असहकारके द्वारा ही खिलाफत तथा पंजाबको न्याय मिलनेकी सम्भावना देखते हैं उन्हें असहकार करना चाहिए, दूसरोंको असहकार करनेकी सलाह देनी चाहिए और असहकार करके जनमतको शिक्षित करना चाहिए। यह उनका धर्म है। इसीमें कांग्रेसकी प्रतिष्ठा है, उसकी प्रगति है। कोई सुधारक अपने विचारोंको अमलमें लानेसे पूर्व किसीकी राह नहीं देखता। पुण्य कर्म करते समय सलाह लेनेमें इतना विलम्ब नहीं करना चाहिए और पापकर्म सलाह मिलनेके बावजूद नहीं करना चाहिए, यह शाश्वत धर्म है। वर्तमान परिस्थितियोंको देखते हुए असहकारको मैं पुण्यकर्म समझता हूँ।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ८-८-१९२०