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८८. शास्त्र क्या कहते हैं?

सर नारायण चन्दावरकर तथा अन्य सज्जनोंने एक लेख लिखा है। उसमें उन्होंने असहकारकी बहुत निन्दा की है और कहा है कि धर्मशास्त्र और इतिहास उसके विरुद्ध हैं। हस्ताक्षरकर्त्ता लिखते हैं कि 'गीता', 'कुरान', 'बाइबिल' तथा पारसी 'अवेस्ता' असहकारको अधर्म मानते हैं। उनमें से उन्होंने कोई दृष्टान्त उद्धृत नहीं किया।

मेरा खयाल है कि 'गीता' आदिका मैंने भी थोड़ा-बहुत अध्ययन किया है। मैंने उन धर्मग्रन्थोंमें असहकारके दर्शन किये हैं। 'गीता' में देवासुर- संग्रामका वर्णन आता है। न्याय और अन्यायके बीच कभी मेल नहीं हो सकता, यह बात 'गीता' स्पष्ट रूपसे बताती है। 'गीता'का यदि केवल अक्षरार्थ ही करें तब भी हमें मालूम पड़ेगा कि जब अर्जुनने पापी कौरवोंके साथ युद्ध करने में आनाकानी की तब श्रीकृष्णने उन्हें युद्ध करनेके लिए प्रेरित किया। इसलिए शब्दार्थसे तो 'गीता' हमें यह सिखाती है कि न केवल हमें अन्यायीके साथ असहकार ही करना चाहिए बल्कि उसे दंड भी देना चाहिए। 'गीता' का भावार्थ दंड देना नहीं सिखाता; लेकिन उसकी असंख्य पंक्तियाँ न्याय और अन्यायके विवाद सम्बन्धी शिक्षणसे भरी हुई हैं।

जिस तरह अंधकार और प्रकाशमें परस्पर वैर-भाव है, जिस तरह सर्दी और गर्मी साथ-साथ नहीं रह सकते उसी तरह न्याय तथा अन्याय एक साथ नहीं रह सकते। इसीसे हममें परस्पर रूठ जानेकी प्रथा परम्परासे चली आ रही है। रैयत जब अन्यायी राजासे परेशान हो जाती है तभी वह उससे रूठ जाती है। जब बहुत ज्यादा परेशान हो उठती है तब वह उसके राज्यको भी छोड़ देती है। ऐसे उदाहरण समय-समयपर देखनेमें आते हैं। आज भी दो राज्योंमें ऐसी हलचल जारी है। प्रह्लादने अपने राक्षसी पिता, मीराबाईने अपने पति तथा नरसिंह मेहताने[१]अपनी जात-बिरादरीके साथ असहकार किया। इन तीनोंकी हम आज पूजा करते हैं। तुलसीदासने सन्त असन्तका भेद बताते हुए कहा है कि दोनोंके बीच परस्पर मेल नहीं हो सकता। परिणामतः हिन्दू धर्मकी तो यही शिक्षा है कि न्याय-अन्यायके बीच परस्पर मेल सर्वथा त्याज्य है। 'अवेस्ता' में अहुरमज्द तथा अहुरमनमें सदैव द्वन्द्व-युद्ध होता रहता है। 'बाइबिल' में खुदा और शैतानमें संघर्ष होता है। अहुरमज्द——खुदा——न्यायकी प्रतिमूर्ति है, और अहरमन——शैतान ——अन्यायका प्रतीक है। ईसा मसीह तो सत्या-ग्रही शूरवीर थे। वे दाम्भिक, झूठे, मदान्ध व्यक्तियोंसे हमेशा असहकार करते रहे। नीतिके प्रश्नको लेकर वे किसी भी परिवारके सदस्योंको एक-दूसरेका विरोध करनेकी सलाह देनेमें संकोच नहीं करते थे। रोमके महान् साम्राज्यका उन्होंने अकेले ही विरोध किया था। अब रहा 'कुरानशरीफ'। लोग इस्लामके सम्बन्धमें जिस तरह लिखते है, उससे ऐसा जान पड़ता है कि वे पैगम्बरके जीवनसे नितान्त अपरिचित हैं। पैगम्बर

  1. १४१४-१४७९; गुजरातके सन्त-कवि और कृष्ण-भक्त।