पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/१६६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१३८
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जबतक मक्कामें रहे तबतक वे अन्यायियोंके साथ असहकार करते रहे। एक ओर जहाँ मुसलमान स्वयं ही असहकारके समर्थनमें इस्लामका उदाहरण देते हैं वहाँ उनसे यह कहना कि उनका धर्म असहकारके विरुद्ध है, कितना आश्चर्यजनक होगा।

इतिहासके प्रमाण भी असहकारका प्रतिपादन करते हैं। सामान्य रूपसे देखनेपर भी जान पड़ेगा कि इतिहास युद्धका आख्यान है; और युद्ध मात्र चरम असहयोगका स्वरूप है। एक पक्ष दूसरे पक्षका त्याग करता है, यह असहकार ही है। युद्ध आसुरी-असहकारका परिचायक है। मैं हिन्दुस्तानके लोगोंके सम्मुख जिस असहकारको प्रस्तुत कर रहा हूँ वह दैवी असहकार है। ऐसा कहनेमें मुझे तनिक भी धृष्टता दिखाई नहीं देती। जिस असहकारमें खूनखराबी——हिंसा——है उस असहकारमें हार-जीत रहती है। जिसमें केवल कुर्बानी——आत्मत्याग——है वहाँ जीत-ही-जीत है। ऐसे असहकारका कोई कैसे विरोध कर सकता है, यह मेरी समझके बाहर है। जो दैवी असहकार करता है वह न्याय-प्राप्तितक सहकार नहीं करता। जर्मनीने शस्त्रबलसे असहकार किया, इसलिए उसकी पराजय हुई और उसने आत्म-समर्पण कर दिया। रूसके दुखोबर लोगोंने निःशस्त्र असहकार किया इससे वे पराजित नहीं हुए। जब उनके लिए रूसमें रहना असम्भव हो गया तब उन्होंने रूसको छोड़ दिया, लेकिन रूसके अत्याचारी शासकोंकी अधीनता स्वीकार नहीं की। आज वे कैनेडामें एक प्रतिष्ठित समाजके रूपमें अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं। व्यक्तिगत असहकारमें व्यक्तिकी जीत है। सामाजिक असहकार हो तो समाजकी जीत होती है। दैवी असहकारमें प्रयत्न व्यर्थ जाता ही नहीं अतएव उसपर कोई दोषारोपण नहीं किया जा सकता। उसका थोड़ासा भी आचरण सुखदायी होता है और वह आचरणकर्त्ताको अपेक्षाकृत बड़े संकटसे मुक्त करता है।[१]अत्याचारी शासक द्वारा प्रदान की गई पदवीको त्यागकर, उस असहकारसे त्यागी सुखका अनुभव करता है, उसकी अदालतोंको त्यागकर वह सन्तोष प्राप्त करता है एवं यदि समाजका बहुमत वैसा त्याग करे तो सारा समाज अन्यायसे सहकार करना छोड़ निर्मल हो जाता है और उस हदतक आरोग्य प्राप्त करता है।

सहकार व असहकार दोनों अनादिकालसे चली आनेवाली नीतियाँ हैं। न्यायीसे हमेशा सहकार व अन्यायीसे असहकार। हिन्द सरकार तथा ब्रिटिश सरकार——दोनों ही इस समय लगातार अन्याय कर रही हैं। उनके साथ सहकार करना पाप है; असहकार धर्म है, कर्तव्य है।


बिछुरत एक प्राण हर लेहीं।
मिलत एक दारुण दुःख देहीं॥

इसी कारण असन्तसे असहकार——यह शास्त्र-वचन है। इसको सहस्रों 'मैनी-फैस्टो' भी नहीं बदल सकते।

[गुजराती से]
नवजीवन, ८-८-१९२०

  1. स्वल्पमप्यस्यधर्मस्य त्रायते महतो भयात्। गीता, २-४० ।