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खड्ग-बलका सिद्धान्त

आशा है, शीघ्र ही तुम्हारी अपनी लिखावटमें लिखा पत्र पढ़नेका सौभाग्य मिलेगा। सस्नेह,

तुम्हारा,
अपर हाउस

[अंग्रेजीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी
सौजन्य : नारायण देसाई

 

९१. खड्ग-बलका सिद्धान्त

पशुबलकी सत्ताके इस युगमें किसीके लिए भी यह विश्वास करना लगभग असम्भव है कि कोई व्यक्ति ऐसा भी हो सकता है जो इस सिद्धान्तको अस्वीकार कर दे कि अन्तिम निर्णायक शक्ति पशुबल ही है। और इसलिए मुझे गुमनाम व्यक्तियोंके ऐसे बहुत-से पत्र मिलते रहते हैं जिनमें मुझे सलाह दी जाती है कि जनताके बीच हिंसाका विस्फोट होनेपर भी मुझे असहयोग आन्दोलनकी प्रगतिमें बाधा नहीं डालनी चाहिए। कुछ दूसरे लोग, जो मानते हैं कि भीतर-ही-भीतर मैं अवश्य ही हिंसाकी तैयारी कर रहा होऊँगा, आकर मुझसे पूछते हैं कि खुली हिंसाकी घोषणा करनेकी वह शुभ घड़ी कब आयेगी। वे मुझे विश्वास दिलाते हैं कि अंग्रेज लोग हिंसाके अलावा——चाहे वह छिपी हो या खुली——और किसी चीजके सामने नहीं झुकेंगे। मालूम हुआ है, कुछ लोग ऐसा भी मानते हैं कि मैं भारतका सबसे बड़ा मक्कार आदमी हूँ, क्योंकि मैं अपना असली इरादा जाहिर नहीं करता। उनका पक्का विश्वास है कि मैं भी हिंसामें उतना ही विश्वास करता हूँ जितना कि अधिकांश लोग करते हैं।

चूँकि संसारके अधिकांश लोग खड्ग-बलके सिद्धान्तसे इतने अधिक प्रभावित हैं और चूँकि असहयोगकी सफलताका दारोमदार इसी बातपर है कि जबतक असहयोग चलता रहे, किसी प्रकारकी हिंसा न हो, और क्योंकि इस मामलेमें मेरे विचारोंपर बहुत अधिक लोगोंका आचरण निर्भर करता है, इसीलिए में इन सारी बातोंको यथा- सम्भव अधिक से अधिक स्पष्ट शब्दोंमें बताना चाहता हूँ।

मेरा यह निश्चित विश्वास है कि जहाँ चुनाव सिर्फ कायरता और हिंसाके बीच करना हो, वहाँ मैं हिंसाको ही चुननेकी सलाह दूँगा। मेरे सबसे बड़े लड़केने एक बार मुझसे पूछा कि १९०८ में जब मुझपर करीब-करीब घातक हमला किया गया था,[१]उस समय अगर वह मौकेपर मौजूद होता तो उसका क्या कर्त्तव्य था : मेरी हत्या होते देखना और भाग निकलना या अपनी शारीरिक शक्तिका प्रयोग करके, जिसका प्रयोग वह कर सकता था और करना भी चाहता, मुझे बचाना। मैंने अपने उपर्युक्त

  1. देखिए खण्ड ८, पृष्ठ ९०-९४ ।