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९२. अदालतें और स्कूल

असहयोग समितिने असहयोगके प्रथम चरणमें वकीलों द्वारा अदालतोंके बहिष्कारका और माता-पिताओं तथा विद्यार्थियों द्वारा, जहाँ जैसा प्रसंग हो, स्कूलों और कालेजोंके बहिष्कारका कार्यक्रम रखा है। मैं जानता हूँ कि अदालतों और स्कूलोंका बहिष्कार करने की सलाह देनेपर भी अगर लोगोंने मुझे खुल्लम-खुल्ला पागल करार नहीं दे दिया है तो उसका श्रेय एक कार्यकर्त्ता और योद्धाके रूपमें मेरी ख्यातिको ही है।

लेकिन मैं यह दावा करनेका साहस करता हूँ कि मेरे पागलपनमें भी एक तरीका है। यह बात बहुत आसानीसे समझी जा सकती है कि सरकार इन अदालतोंके माध्यमसे ही अपनी सत्ताकी धाक जमाती है, और इन स्कूलोंमें ही अपने क्लर्क और दूसरे कर्मचारी तैयार करती है। अगर सरकार कुल मिलाकर न्यायप्रिय हो तो उसकी अदालतें और स्कूल बहुत अच्छी संस्थाएँ हैं। लेकिन अगर वह अन्यायी हो तो ये संस्थाएँ मृत्यु-पास बन जाती हैं।

पहले वकीलोंके सम्बन्धमें

मेरे असहयोग विषयक विचारोंकी आलोचना जैसी दृढ़ता और योग्यताके साथ इलाहाबादके 'लीडर' ने की है, वैसी दृढ़ता और योग्यताके साथ और किसी अखबारने नहीं की है। सन् १९०८ में लिखी अपनी 'हिन्द स्वराज्य'[१]नामकी पुस्तिकामें मैंने वकीलोंके सम्बन्धमें जो विचार प्रकट किये हैं, उनकी उसने बड़ी दिल्लगी उड़ाई है। लेकिन इस सम्बन्धमें मेरे विचार अब भी वैसे ही हैं। और अगर समय मिला तो मैं इन स्तम्भों मैं उन विचारोंपर और भी विस्तारसे लिखनेकी आशा रखता हूँ। लेकिन फिलहाल मैं उनपर कुछ नहीं लिख रहा हूँ, क्योंकि मेरे सर्वथा निजी विचारोंका मेरी इस सलाहसे कोई सम्बन्ध नहीं है कि वकीलोंको अपना धन्धा बन्द कर देना चाहिए। और मैं निवेदन करूँगा कि राष्ट्रीय असहयोगके लिए वकीलोंका अपना धन्धा बन्द करना जरूरी है। सरकार के साथ अदालतोंके जरिये जितना सहयोग वकील करते हैं, उतना शायद और कोई नहीं करता। वकील लोग जनताको कानूनका अर्थ समझाते हैं और इस प्रकार सरकारकी सत्ताको सहारा प्रदान करते हैं। यही कारण है कि उन्हें अदालती अफसर कहा जाता है। उन्हें हम अवैतनिक पदाधिकारी भी कह सकते हैं। ऐसा कहा जाता है कि सरकारका सबसे प्रबल मुकाबला यदि किसीने किया है तो वकीलोंने ही किया है। निःसन्देह, यह बात अंशतः सत्य है। लेकिन इससे इस धन्धे में निहित बुराई दूर नहीं हो जाती। इसलिए जब राष्ट्रकी इच्छा सरकारको ठप कर देने की है और यदि वकालत-पेशा लोग सरकारको अपनी इच्छाके सामने झुकानेमें राष्ट्रसे सहयोग करना चाहते हों तो उन्हें अपना धन्धा बन्द कर देना चाहिए। लेकिन

  1. दरअसल यह १९०९ में लिखी गई थी; देखिए खण्ड १०, पृष्ठ ६ ।