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अदालतें और स्कूल

लोगोंको लाभ पहुँचेगा। लेकिन हिन्दू साथ दें या नहीं, मुसलमानोंको तो आगे बढ़ना ही है। अगर यह उनके लिए जीवन-मरणका सवाल है तो उन्हें उसकी जो भी कीमत चुकानी पड़े, उसका खयाल नहीं करना चाहिए। अपने सम्मान, विशेषकर अपने धार्मिक सम्मानकी रक्षा करनेके लिए जो भी मूल्य चुकाना पड़े, कम ही होगा। बलिदान वही लोग कर सकते हैं जो बलिदान किये बिना नहीं रह सकते। लाचारीका बलि- दान कोई बलिदान नहीं होता। वह स्थायी नहीं होगा। जिस आन्दोलनका समर्थन अनिच्छुक कार्यकर्त्ता किसी प्रकारके दबावके कारण करें तो उस आन्दोलनमें सत्यनिष्ठा नहीं होती। जिस दिन एक-एक मुसलमान शान्ति सन्धिकी शर्तोंको अपने प्रति किया गया व्यक्तिगत अन्याय मानने लगेगा उस दिन खिलाफत आन्दोलनकी शक्ति दुर्निवार हो उठेगी। जिस समय किसीके प्रति व्यक्तिगत तौरपर कोई अन्याय किया जाता है उस समय वह उसके प्रतिकारके लिए दूसरोंकी सहायता या बलिदानकी प्रतीक्षा नहीं करता। निःसन्देह वह दूसरोंकी सहायता पानेकी कोशिश करता है, लेकिन चाहे उसे सहायता मिले या नहीं, उस अन्यायके खिलाफ उसका संघर्ष चलता रहता है। अगर उसका पक्ष न्यायपूर्ण है तो ईश्वरीय नियम यही है कि उसे सहायता मिलेगी। ईश्वर असहायोंका सहायक है। जब पाण्डव द्रौपदीकी रक्षा करनेमें असमर्थ हो गये तब ईश्वरने ही आकर उसकी लज्जाकी रक्षा की। जब ऐसा लग रहा था कि सभी लोगोंने पैगम्बरका साथ छोड़ दिया है तब उनकी सहायता खुदाने की थी।

अब स्कूलोंके बारेमें

मैं तो यह मानता हूँ कि अगर हममें अपने बच्चोंकी शिक्षा स्थगित करनेका साहस नहीं है तो हम इस संघर्षमें विजय पानेके उपयुक्त पात्र नहीं हैं।

आन्दोलनके पहले चरणमें सरकारकी कृपासे प्राप्त पद-प्रतिष्ठाके परित्यागकी बात शामिल की गई है। दरअसल कोई भी सरकार किसीके प्रति ऐसी कृपा-दृष्टि तभी दिखाती है जब उस व्यक्तिने उसकी उससे भी बड़ी सेवा करके उसपर कृपा की हो। जो सरकार मुफ्त ही कृपा बाँटती चलेगी उसे खराब और विवेकशून्य सरकार माना जायेगा। जो सरकार जनताकी इच्छापर आधारित हो उससे हम अपनी सेवाओंकी स्वीकृति प्रतीकस्वरूप कोई मामूली अलंकार पानेके लिए भी अपने प्राणोंकी बाजी लगा देते हैं। लेकिन जनताकी इच्छाका अनादर करनेवाली अन्यायी सरकारसे प्राप्त की गई कोई भी जागीर गुलामी और अपमानकी निशानी बन जाती है। इस दृष्टिसे हमें एक क्षण भी सोच-विचार किये बिना स्कूलोंको छोड़ देना चाहिए।

मेरे लिए तो असहयोगकी सारी योजना अन्य बातोंके अलावा हमारी भावनाकी गहराई और व्यापकता परखनेकी एक कसौटी भी है। क्या हम खरे हैं? क्या हम कष्ट-सहनके लिए तैयार हैं? कहा गया है कि हमें खिताबयाफ्ता लोगोंसे अधिककी अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए, क्योंकि उन्होंने कभी किसी राष्ट्रीय मामलेमें हिस्सा नहीं लिया है और उन्होंने जो सम्मान पाया है वह इतनी बड़ी कीमत देकर पाया है कि वे सहज ही उसे छोड़नेको तैयार नहीं होंगे। मैं आपत्ति करनेवाले लोगोंके सामने यह दलील पेश करता हूँ, और उनसे पूछता हूँ कि स्कूली बच्चोंके